हिन्दी कर्क रोग से पीड़ित क्यों ?
भाषा संवाद संप्रेषण का सशक्त माध्यम है। मनुष्य को इसलिए भी परमात्मा की श्रेष्ठ कृति या श्रेष्ठ सृजन कहा जाता है कि वह भाषा का उपयोग कर अपने भावों को अभिव्यक्त करने में सक्षम है। यहीं विशेषता है जो मनुष्य को अन्य प्राणियों से भिन्न करती है। आज संसार में 6809 से अधिक भाषाएं और अनगिनत बोलियां है। जिसमें से एक भाषा हिन्दी भी है। हिन्दी संसार की दूसरी बड़ी भाषा है जिसका उपयोग सर्वाधिक युवा आबादी करती है। हिन्दी का व्यक्तित्व इसकी वर्णमाला के कारण विराट है। हिन्दी की खासियत है कि इसमें जैसा बोला जाता है, वैसा ही सुना जाता है और वैसा ही लिखा भी जाता है। निस्संदेह, हिन्दी में सामथ्र्य की सुगंध है। उदाहरणार्थ, हम “कोण” बोलेंगे तो हिन्दी में लिखेंगे भी “कोण” ही। “ण” को हम “ण” ही लिखेंगे, “न” नहीं। परंतु उर्दू, अरबी, फ्रेंच और अंग्रेजी भाषा में “ण” को “न” ही लिखा जाएगा। इस प्रकार हिन्दी भाषा का “कोण” अन्य भाषाओं में “कोन” हो जाएगा। परिणामस्वरूप अर्थ में ही अंतर आ जाएगा। इससे सिद्ध है कि सामथ्र्य की जो सुगंध हिन्दी के पास है वह अन्य भाषाओं के पास नहीं। फिर भी हिन्दी अनादृत है तो इसका कारण यह है कि जिस प्रकार से कुछ लोगों को सुगंध से अप्रियताबोध अर्थात् एलर्जी होती है, ठीक उसी प्रकार से भारत में तथाकथित अभिजात्य वर्ग है, जिसकी नाक के नथुने हिन्दी के सामथ्र्य की सुगंध से फड़कने लगते हैं। मातृभाषा जब मात्र कुछ लोगों की भाषा बनकर रह जाए तो उसका कैसा और कितना विकास होगा यह सहज चिंतनीय है।
हिन्दी भाषा मादक भी है, आकर्षक भी है, मोहक भी है। यहीं कारण है कि रूस के वरान्निकोव और बेल्जियम के बुल्के भारत आकर हिन्दी को समर्पित हो गये। बोलने को तो फ्रेंच भी एक भाषा है, परंतु आकर्षक और मोहक नहीं। इंटेलियन भाषा आकर्षक है, परंतु मादक और मोहक नहीं। चीनी भाषा न तो मादक है, न आकर्षक और न ही मोहक। इन्हीं सब कारणों से हिन्दी अपने गुणों पर गौरवान्वित है। भारत में प्रत्येक वर्ष चैदह सितंबर को हिन्दी दिवस मनाया जाता है। जैसा कि हम जानते है कि हमारा देश लंबे समय तक अंग्रेजों की दासता के अधीन रहा। जाहिर-सी बात है कि गुलाम देश के पास अपनी कोई राज या राष्ट्रभाषा नहीं होती। परतंत्र राष्ट्र बिन भाषा के गूंगे अपाहिज की तरह ही होता है, जो अपनी आंखों के सामने सबकुछ देखता है, पर बोल नही सकता। लहूलुहान और रक्तरंजित क्रांति के उपरांत जब 15 अगस्त, 1947 को भारत आजाद हुआ तो इसके कुछ वर्षो बाद 14 सितंबर, 1949 को संविधान सभा ने एक मत से यह निर्णय लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी। इसी महत्वपूर्ण निर्णय के महत्व को प्रतिपादित करने तथा हिन्दी को हर क्षेत्र में प्रसारित करने के लिये राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के अनुरोध पर सन् 1953 से संपूर्ण भारत में 14 सितंबर को प्रतिवर्ष हिन्दी-दिवस के रूप में मनाया जाने लगा। भारतीय संविधान के भाग 17 के अध्याय की धारा 343(1) में इस प्रकार वर्णित है – संघ की राज भाषा हिन्दी और लिपि देवनागरी होगी। गूंगे राष्ट्र के पास अब अपनी अभिव्यक्ति को प्रकट करने के लिए हिन्दी भाषा अधिकारिक तौर पर एक सशक्त माध्यम बनी। ऐसी बात भी नहीं है कि आजादी से पूर्व देश में हिन्दी का प्रयोग शून्य था, बल्कि हिन्दी भारत को आजाद कराने में एक सैनिक की भांति लड़ी थी और इसका प्रयोग उस समय भी सर्वाधिक था।
समय की करवट के साथ हिन्दी का आकाश सूना होता गया। लोग अंग्रेजी को भूलाने के बजाय ओर भी इसके दीवाने होते गये। मां के जगह मम्मी और पिता की जगह डैड हो गया। बस ! इसी में सब बैड हो गया। ओर फिर हिन्दी को एक दिन की भाषा बनाकर ऐसे याद किया जाने लगा कि जैसी किसी की पुण्यतिथि हो। दरअसल, हमें अपनी भाषा का गौरव नहीं पता है। उसका मूल्य हम भूल चुके है। हालात यह है कि आज हिन्दवासियों को अंग्रेजी की गाली भी प्रिय लगने लगी है। वस्तुतः सौंदर्य और सुगंध से परिपूर्ण हिन्दी का यश मिटता जा रहा है। आलम है कि हम हिन्दी को कुलियों की और अंग्रेजी को कुलीनों की भाषा मानते हैं। देश स्वाधीन है परंतु वैचारिक और मानसिक दृष्टि से हम आज भी दास हैं। इसी कारण हिन्दी को कूड़े-करकट का ढेर और अंग्रेजी को अमृत-सागर समझने की हमारी मान्यता आज भी नहीं बदली है।
हिन्दी के प्रति हीनता का बोध राष्ट्र को क्या उन्नति के शिखर पर ले जायेगा ? स्मरण रहे कि कोई राष्ट्र अपनी भाषा का आदर किये बगैर विकसित एवं समृद्धशाली नही हो सकता। लेकिन, हाल में भाषा को लेकर विशेष तौर पर हिन्दी को लेकर देश में जिस तरह विवाद उत्पन्न हुआ उसको देखकर ये कह पाना कठीन है कि आज भी हमारे पास एक राष्ट्र एक भाषा का अत्यंत अभाव है। कांग्रेस नेता शशि थरूर ने जब यह कहा कि हिन्दी राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा है, तब इस पर सोशल मीडिया पर लोगों ने नाराजगी जतायी और थरूर को बुरा-भला भी कहा। लेकिन, शशि थरूर ने सही कहा हिन्दी राष्ट्रभाषा नही राजभाषा है। इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। दूसरी बात यह भी कही कि हिन्दी को थोपना नहीं चाहिए। इस पर असहमति हो सकती है। यदि कोई सड़क के बीच चल रहा है तो यातायात नियम को उन पर स्वतंत्रता का हवाला देकर नहीं थोपना कहां तक उचित है ? क्या उसे बीच राह में चलने दिया जाना चाहिए ?
आज भाषा को लेकर संवेदनशील और गंभीरतापूर्वक विचार करने की आवश्यकता है। इस सवाल पर भी सोचना चाहिए कि क्या अंग्रेजी का कद कम करके ही हिन्दी का गौरव बढ़ाया जा सकता है ? जो हिन्दी कबीर, तुलसी, रैदास, नानक, जायसी और मीरा की भजनों से होती हुई प्रेमचंद, प्रसाद, पंत और निराला को बांधती हुई भारतेंदु हरिशचंद्र तक सरिता के भांति कलकल बहती रही, आज उसके मार्ग में अटकले क्यों है ? और आज आजाद भारत में हिन्दी कर्क रोग पीड़ित से क्यों है ? लेकिन, अफसोस इस बात का भी है कि हम हिन्दी का यश बढ़ाने के लिए प्रतिबद्ध तो है पर नवभारत नही न्यू इंडिया में। यदि माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश का वास्तविक कायाकल्प करना चाहते है, तो हिन्दी को उसकी गरिमा पुनः लौटायें। डिजिटल इंडिया के इस युग में चरमराती हिन्दी को चमकाना होगा। तकनीकि और वैज्ञानिक दौर में हिन्दी के लिए अप्रत्यक्ष रुप से बाध्यता अनिवार्य करनी होगी। उदाहरण के लिए गूगल जैसे बड़े सर्च इंजन की ही ले तो इस पर सर्च करने के बाद 90 फीसदी परिणाम अंग्रेजी में आते है, जबकि इसके विपरीत 90 फीसदी परिणाम हिन्दी में लाने होंगे। सरकारी वेबसाईट को हिन्दी में रुपान्तरित करने से लेकर ऑन या ऑफलाईन फॉर्म सभी को हिन्दी में परिवर्तित या इनका नवीनकरण करना इस दिशा में एक सार्थक कदम होगा। इस तरह अनेक छोटी-छोटी कोशिशे मन से की जाये तो हिन्दी के प्रति एक सुखद माहौल्ल तैयार किया जा सकता है।