ख्वाब
झूठे ख्वाबो को कोस रहा
अपने मंसूबो को रोक रहा।
देखता रोज ही ख्वाब वो
अकेला कर रहा राज वो।
अंधेरे का है मालिक वो
ऊजाले का देखता ख्वाब वो।
बचपन से करता आया संघर्ष वो
आज भी कर रहा संघर्ष वो।
बूझते दीपक की लौ की भाँति बूझ रहा
जैसा आज है उसका वैसा कल रहा।
पंख अरमानो का लगाकर
उड़ना चाहा ऊँचाईयों पर
बादलों से टकराकर वो
फिर गिरा जमीन पर।
पंख उसके ढीले पड़े
अरमानो को विराने मिले।
ख्वाब टूटे तो पता चला
आज सारे अपनो में बेगाने हुए।
— आशुतोष