ग़ज़ल
ज़ख्म अपने दिल पे बेशुमार खा गया,
मैं आदमी पहचानने में मार खा गया,
चला था भरोसे का कारोबार करने मैं,
जिसपे किया भरोसा कारोबार खा गया,
बच्चे मेरे इक शाम को तरसते ही रहे,
दफ्तर मेरा सारे मेरे इतवार खा गया,
नींद नहीं आती मुझको रात-रात भर,
बेटी का कद सारा मेरा करार खा गया,
जितनी भी मदद आई थी गरीबों के लिए,
वो नेता और नेता का परिवार खा गया,
ढूँढना फिज़ूल है ये अब नहीं मिलती,
इंसान की इंसानियत बाज़ार खा गया,
— भरत मल्होत्रा