नैनागिरि में तीर्थंकर पार्श्वनाथ का समवसरण
यह बहुत महत्वपूर्ण व गौरव की बात है कि पूरे बुन्देलखण्ड में एक ऐसा भी तीर्थ है जहाँ किसी तीर्थंकर का समवसरण आया है। वह अतिशय सिद्ध क्षेत्र है नैनागिरि-रेशंदीगिर। और बड़े आश्चर्य की बात नहीं होगी कि उनका केवलज्ञान प्राप्ति क्षेत्र भी नैनागिरि हो। यहाँ पर्वत, सरिता, सरोवर, परिखा, पुरावशेष जैसे वे सभी महत्वपूर्ण साक्ष्य उपलब्ध हैं जो इसे बुन्देलखण्ड के सर्वोत्तम के रूप में प्रस्थापित करता है। उपयुक्त उत्खनन और उन्वेषण का कार्य अभी प्रतीक्षित है।
लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भगवन् कुन्दकुन्दाचार्य द्वारा लिखित प्राकृत निर्वाण भ्क्ति जितनी प्रामाणिकता से सम्मेदशिखर व ऊर्जयन्तगिरि-गिरनार आदि को निर्वाण भूमि ठहराती है उतनी ही प्रामाणिकता से वही णिव्वाणभत्ति तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ की समवसरण स्थली व उसी समवसरण में स्थित वरदत्तादि पांच मुनिराजों की निर्वाणस्थली नैनागिरि-रेशंदीगिर को भी उद्घोषित करती है।
तीर्थंकर भगवान की धर्मसभा को समवसरण कहते हैं। जब उन्हें तपस्या के पश्चात् केवलज्ञान प्रगट होता है, तब समवसरण की रचना होती है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ को केवलाान के उपरान्त उनका समवसरण नैनागिरि में में आया। उन्होंने दिव्यध्वनि के रूप में नैनागिरि में उपदेश दिया। यह णिव्वाणभत्ति का सर्वप्राचीन प्रामाणिक उल्लेख है।
जैनागम के अनुसार सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से धनकुबेर समवसरण की रचना करता है। धरती से बीस हजार हाथ की ऊँचाई पर आकाश में अधर समवसरण की रचना बनती है। पृथ्वी से लेकर समवसरण तक १-१ हाथ की बीस हजार सीढ़ियाँ होती हैं जिन्हें प्रत्येक प्राणी अन्तर्मुहूर्त में चढ़कर समवसरण में पहुँचते हैं और भगवान की दिव्यध्वनि का पान करते हैं। समवसरण गोलाकार बनता है। समवसरण में आठ भूमियाँ होती हैं। उन आठ भूमियों के नाम इस प्रकार हैं-१. चैत्यप्रासाद भूमि २. खातिका भूमि ३. लताभूमि ४. उपवनभूमि ५. ध्वजाभूमि ६. कल्पवृक्षभूमि ७. भवनभूमि ८.श्रीमण्डपभूमि। समवसरण में जो आठवीं श्रीमण्डपभूमि है उसके बीचोंबीच तीन कटनी से सहित गंधकुटी में तीर्थंकर भगवान विराजमान होते हैं। उसी आठवीं श्रीमण्डपभूमि के अंदर गंधकुटी के बाहर चारों ओर गोलाकार में ही बारह सभाएँ लगती हैं। बारह सभाओं का क्रम इस प्रकार रहता है-१. गणधर मुनि २. कल्पवासिनी देवी ३. आर्यिका और श्राविका ४. ज्योतिषी देवी ५. व्यन्तर देवी ६. भवनवासिनी देवी ७. भवनवासी देव ८. व्यन्तर देव ९. ज्योतिषीदेव १०. कल्पवासी देव ११. चक्रवर्ती आदि मनुष्य १२. सिंहादि तिर्यंच प्राणी। इन बारह कोठों में असंख्यातों भव्यजीव बैठकर धर्माेपदेश सुनकर अपना कल्याण करते हैं। भगवान पार्श्वनाथ की दिव्यध्वनि सात सौ अठारह भाषाओं में तथा समस्त जनता की समस्त भाषाओं में परिणत हो जाती है।
समवसरण रचना की व्यवस्था तो सभी तीर्थंकरों की एक समान ही रहती है उसमें कोई अन्तर नहीं होता है। केवल तीर्थंकर की अवगाहना के अनुसार उनके समवसरण का विस्तार बड़ा-छोटा अवश्य होता है। भगवान ऋषभदेव की अवगाहना ५०० धनुष की थी अतः उनका समवसरण विस्तार १२ योजन (९६ मील) का था। इसके आगे तीर्थंकर नेमिनाथ पर्यंत प्रत्येक तीर्थंकर का विस्तार दो कोस कम होता जाता। तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समवसरण का विस्तार सवा योजन का था और भगवान महावीर की अवगाहना ७ हाथ की थी अतः उनका समवसरण १ योजन (८ मील) में बना था।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समवसरण का विस्तार सवा योजन अर्थात् 16 किलोमीटर की परिधि का ठहरता है। नैनागिरि में इस परिधि में पुरातात्त्विक महत्व के अनेक स्थल मिले हैं, अभी और अधिक अन्वेषण की आवश्यकता है।
समवसरण की मुख्य विशेषता है-समवसरण में जन्मजात विरोधी प्राणी भी मैत्रीभाव धारण कर आपसी प्रेम का परिचय प्रदान करते हैं। जैसे-शेर और गाय एक घाट पर पानी पीतेहैं, सर्प-नेवला भी एक-दूसरे को कोई हानि नहीं पहुँचाते हैं। समवसरण के प्रवेश द्वार पर ही चारों दिशा में एक-एक मानस्तंभ होता है। जहाँ पहुँचते ही मनुष्य का मान गलित होकर सम्यग्दर्शन उत्पन्न हो जाता है उन्हें मानस्तंभ कहते हैं।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समवसरण में 300 पूर्वधार, 10,900 शिक्षक, 1400 अवधिज्ञानी, 1000 केवली, 1000 विक्रियाधारी, 300 सहदीक्षित, 536 सहमुक्त, 600 वादी, 10 गणधर, इनमें मुख्य गणधर स्वयंभू थे। 16,000 मुनि, 38,000 आर्यिकाएँ, 1 लाख श्रावक और 3 लाख श्राविकाएँ थीं। ग्रन्थों के अनुसार बीस हजार हाथ ऊँचे समवसरण की बीस हजार सीढ़ियाँ चढ़कर अन्धे, लँगड़े, बाल, वृद्ध और रोगी आदि सभी अड़तालिस मिनट के भीतर ही भीतर चढ़ जाते हैं। यह भगवान का ही माहात्म्य है। कहा गया है-
समवसरण में कर प्रवेश, दर्शन हेतू जो आते हैं।
अंधे बहरे लंगड़े लूले, सभी ठीक हो जाते हैं।।
तीर्थंकर पार्श्वनाथ ने अन्त में झारखण्ड प्रदेश में स्थित सम्मेद-शिखर पर्वत से मुक्ति-लाभ किया।
— डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’