गज़ल
दिल-ए-बेताब को जब भी तेरा पैगाम मिल जाए,
लगे ऐसा किसी बच्चे को ज्यों ईनाम मिल जाए,
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ज़रा सा मुस्कुराकर देख ले जब तू मेरी जानिब,
दर्द से तड़पते बीमार को आराम मिल जाए,
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जो रह जाए अधूरी वो कहानी याद रहती है,
उसे सब भूल जाते हैं जिसे अंजाम मिल जाए,
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ना चिंता थी कोई जब ना ही दुनिया के झमेले थे,
फिर दोबारा बचपन की कहीं वो शाम मिल जाए,
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मेरे अंदर भी इक रावण छुपा बैठा है बरसों से,
दशहरा मैं भी कर लूँ गर कहीं पर राम मिल जाए,
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।