लघुकथा

मुफ्त का भोजन

आज शेठ ब्रिजलाल के बेटी की शादी थी।
पूरा शहर मानो शेठ जी की इस खुशी में शामिल होने के लिए आ गया था।
हजारों अन्य लोगों के साथ अमर और रजनी भी इस शादी में आमंत्रित थे। शेठ जी ने अपनी ख्याति के अनुरूप ही बड़ा भव्य पंडाल बनवाया था, जिसमें एक तरफ लग्न मंडप सजा हुआ था तो वहीँ दूसरी तरफ खाने पीने की चीजों का एक तरह से बाजार ही लगा हुआ था।
लंबे चौड़े मैदान में एक तरफ करीने से सजी पकवानों के नामों की तख्तियों के साथ खाने व नाश्ते खूबसूरत मेजों की शोभा बढ़ा रहे थे।

पारिवारिक सदस्यों व रिश्तेदारों की मौजूदगी में एक तरफ वैवाहिक कार्यक्रम तो पंडाल की दूसरी तरफ भोजन शुरू हो चुका था।

अमर और रजनी भी अपनी पसंद के व्यंजन थाली में सजा कर जायकेदार भोजन का लुत्फ़ उठाने लगे।

थोड़ी देर में अमर ने अपनी थाली खाली कर दी और हाथ धोने चला गया।

वापस आकर अमर ने देखा तरह तरह के व्यंजनों से रजनी की थाली अभी भी आधी से अधिक भरी हुई थी। तरह तरह के व्यंजन देखकर उसने अपनी थाली पूरी भर तो ली थी लेकिन अब उससे खाया नहीं जा रहा था। कुछ देर तक वह जबरदस्ती खाने का प्रयास करती रही मगर अमर को हाथ धोकर आया देख उसने हाथ में पकड़ी थाली भोजन सहित जुठे बर्तनों के ढेर में रख दी और हाथ धोने चली गई।

रजनी के वापस आते ही अमर ने रजनी का हाथ पकड़ा और उसे अपने साथ चलने का इशारा किया।

थोड़ी देर में दोनों पंडाल के पीछे पहुँच गए, जहाँ मेहमानों के जुठे बर्तनों को धोने का काम चल रहा था।

रजनी हैरान होकर सोच रही थी ‘आखिर अमर उसे यहाँ क्यों लेकर आया है ?’ कि तभी रजनी की नजर उस तरफ गई जहाँ कुछ गरीब नंग धडंग बच्चे उन फेंके हुए खाने में से अपने खाने के लिए कुछ तलाश कर रहे थे और उन्हें खा भी रहे थे। खुद खाने के साथ ही कुछ सब्जियाँ व पूरियाँ ये बच्चे अपने हाथ में पकड़ी पन्नियों में भी भरते जा रहे थे।
ये वही भोजन थे जो मेहमानों ने अपनी थालियों में छोड़ दिए थे और बर्तन साफ़ करनेवालों ने इस भोजन को बच्चों पर मेहरबानी करते हुए नाली में न डालकर एक किनारे फेंक दिया था।
बच्चों के साथ ही कुछ आवारा कुत्ते भी कभी कभार उन भोजनों पर मुँह मारने में कामयाब हो जाते, लेकिन बच्चों से डरकर फिर दूर जाकर खड़े हो जाते।

यह दृश्य देखकर रजनी को रोना आ गया। वह समझ गई कि अमर उसे यहाँ क्यों ले आया था।

पलकों में छलक आये आँसुओं को पोंछते हुए रजनी ने अमर के आगे हाथ जोड़ते हुए कहा, ”मुझे माफ़ कर दो अमर ! तुमने मेरी आँखें खोल दीं ये भयावह मंजर दिखा कर। अब मैं प्रतिज्ञा करती हूँ कि आइंदा भोजन का एक कौर भी व्यर्थ नहीं होने दूँगी, चाहे वह मुफ्त का ही क्यों न हो।”
अब अमर के चेहरे पर प्रसन्नता के साथ ही संतोष भी नजर आ रहा था।

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।