लघुकथा

दुविधा

पिछले महीने जब से मेरा स्थानांतरण घर से काफी दूर हो गया, जहां घर से जाकर ड्यूटी कर पाना संभव नहीं रहा। अभी तो मैं अपने एक सहयोगी के कमरे में ही रहता हूं ।पर हर दूसरे तीसरे दिन घर आना भी मुश्किल हो रहा है। लेकिन पिता जी को अकेला छोड़ कर रहना तो और मुश्किल है। जैसा कि श्रीमती जी भी पहले कहा करती थीं कि जब कभी दूर स्थानांतरण होगा तो हम लोग वहीं कमरा लेकर साथ ही रहेंगे। हालांकि तब की बात और थी। क्योंकि स्थानांतरण की संभावना ही न थी।
    लेकिन अब मैंने फैसला कर लिया है कि आज इसका कोई न कोई हल तो निकाल कर ही रहूंगा। क्योंकि दो दिन की छुट्टी भी है,तो समय भी पर्याप्त है।
       घर पहुंचकर जब मैंने श्रीमती जी को अपनी दुविधा और परेशानी से अवगत कराया, तब उन्होंने कहा कि इसमें इतना परेशान होने जैसी क्या बात है?  अगर पिताजी भी वहां हमारे साथ चलकर रहने को तैयार हैं, तब तो ठीक है। वरना आप अपने लिए एक छोटा कमरा ले लीजिए बस। हफ्ते दस दिन में भी आते रहेंगे, तो बाकी मैं सब संभाल लूंगी।
        मगर पिताजी को तुम अकेले कैसे संभाल पाओगी? मैंने संदेह प्रकट किया
    क्योंकि पिताजी क्या मुझे काट खायेंगे? श्रीमती जी टोन में बोलीं
     नहीं! यार मेरा मतलब है कि जिस स्थिति में वे हैं, क्या वो सब अकेले झेल पाओगी?
      देखिए जी ! बच्चों और बुजुर्गो में कोई अंतर नहीं होता है। मैं उनकी मां बन जाऊंगी।बस सब कर लूंगी।आप चिंता मत कीजिए। वो पिता हैं हमारे। उनकी साया हमें वटवृक्ष का बोध कराती है। बस मुझे और कुछ नहीं कहना।
      अब कुछ कहने को बचा ही नहीं, तुमने तो मुझे बहुत बड़ी दुविधा से बाहर निकाल लिया। मैं अभी पिता जी से साथ चलने की बात करता हूं।
    जरुर कीजिए। मगर चाय बिस्कुट लिए जाइए , उनके साथ ही आप भी पी लीजिएगा और हां याद से दवा भी खिला देना। 
        जैसी आज्ञा दादी अम्मा! मैं मुस्कुराते हुए चाय की ट्रे उठाकर पिता जी के कमरे की ओर बढ़ गया। 

*सुधीर श्रीवास्तव

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