सामाजिक

पितृ तर्पण

पितृ तर्पण  भी मानव जीवन का एक कर्म/कर्त्तव्य है। जिसे पितरों के लिए श्रद्धा से किए गए मुक्ति कर्म को श्राद्ध  और तृप्त करने की क्रिया और देवताओं, ऋषियों या पितरों को तंडुल या तिल मिश्रित जल अर्पित करने की क्रिया को तर्पण और तर्पण करने को ही पिंडदान करना कहते हैं। 

      धार्मिक मान्यताओं के अनुसार अनुसार श्राद्ध का अधिकार केवल पुत्र, भाई के पुत्र यानि भतीजा को है।शास्त्रों श्राद्ध का पहला अधिकार बड़े पुत्र को होता है.

      तर्पण के समय सबसे पहले देवों के लिए तर्पण किया जाता है जिसके लिए कुश, अक्षत, जौ और काला तिल का उपयोग किया जाता है । तर्पण करने के बाद पितरों से प्रार्थना की जाती है ताकि वे संतुष्ट और प्रसन्न होकर आशीर्वाद अपना आशीर्वाद दें। तर्पण करते समय पूर्व दिशा में मुख करके कुश लेकर अक्षत् से तर्पण किया जाता है। अपने दोनों हाथों के अंगुष्ठ और तर्जनी के मध्य दर्भ यानि कुशा जिसे डाब भी कहते हैं लेकर अंजलि बनाकर अर्थात दोनों हाथों को परस्पर मिलाकर उसमें जल भरकर अंजली में भरा हुआ जल दूसरे खाली पात्र में डालते हैं, खाली पात्र में जल डालते समय तृप्यताम कहते हुए जल छोड़ने का विधान बताया गया है।

      भाद्रपद पूर्णिमा को गया में श्राद्धार्थी पहला पिंडदान व तर्पण करते हैं। गया की फल्गु नदी में स्नान और तर्पण करने से पितरों को देव योनि प्राप्त होती है। हिंदू समाज का दृढ़ विश्वास है कि गया में श्राद्ध पिंडदान करने से उनकी बात पीढ़ियों के पितरों को मुक्ति मिल जाती है। कहा जाता है कि गया में यज्ञ, श्राद्ध, तर्पण और पिंड दान करने से मनुष्य को स्वर्गलोक एवं ब्रह्मलोक की प्राप्ति होती है। पितृपक्ष भाद्रपद शुक्लपक्ष की पूर्णिमा तिथि से आश्विन कृष्णपक्ष की अमावस्या तिथि तक पितरों के लिए निर्धारित है, जिसे महालय कहते हैं।

      पिंडदान के लिए 11.30 से 12.30 का समय अच्छा माना गया है। श्राद्ध भाद्रपद माह की पूर्णिमा से लेकर अश्विन माह की अमावस्या तिथि तक चलते हैं।  

         धार्मिक मान्यता है कि गया में पिंडदान करने से 108 कुल और 7 पीढ़ियों का उद्धार होता है और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसलिए अधिसंख्य गयाजी में ही पितरों का पिंडदान किया जाता है।

        आज हम तकनीकी और विकास की ऊंचाइयों की ओर जा रहे हैं, और धार्मिक, आध्यात्मिक मान्यताओं का विकास  आधुनिकता की भेंट चढ़ता जा रहा है, फिर भी हम कितना भी आधुनिक हो जायें , हमारी धार्मिक आध्यात्मिक मान्यताओं की महत्ता बरकरार ही रहेगी। क्योंकि हमारे देश में धार्मिक मान्यताओं का वजूद हमेशा गहराई में अपनी जड़ें मजबूत करता ही जा रहा है।

@साभार गूगल और धार्मिक मान्यताओं सहित और बुजुर्गो से प्राप्त जानकारी के अनुसार 

*सुधीर श्रीवास्तव

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