कविता

आस का पंछी

आस का पंछी है छलिया

जो रह-रह छल जाता है

नभ में कहीं नजर नहीं आता

फिर भी होता है ज़रूर …..!

रोज -रोज टूटती है आस

लेकिन सांसों की डोर थामे

उड़ती है आस

ना दाना दो 

ना पानी दो

फिर भी फलती-फूलती है आस !

दो टूक कलेजे के कर

मन पर करती आघात

इसकी वश में हमारा आत्मसम्मान

अस्तित्व और अभिमान……!

किस्मत के भरोसे रहती है आस

सिर्फ से मेहनत नहीं सधती

रहती हैं हमेशा किस्मत की मोहताज !

जी करता है छोड़ दूं

इस छलिया का साथ

लेकिन ये करती रहती है हमेशा संघात !

— विभा कुमारी “नीरजा”

*विभा कुमारी 'नीरजा'

शिक्षा-हिन्दी में एम ए रुचि-पेन्टिग एवम् पाक-कला वतर्मान निवास-#४७६सेक्टर १५a नोएडा U.P