चाहिए
सुनो! बहुत हुआ मुझे भी अवकाश चाहिए,
मैं ही हूँ जिंदगी तुम्हारी ये अहसास चाहिए।
थक गई हूँ मैं मन से, रिश्तों को ढ़ोते ढ़ोते,
झंझावातों से दूर फुर्सत की सांस चाहिए।
तुम्हें वक़्त कहाँ जो मेरे दिल को पढ़ सको,
मुझे तुम्हारी इस गृहस्थी से सन्यास चाहिए।
बोलो! कब तक झूठी मुस्कान बिखरेती रहूँ,
खुद के लिए मुझे कोई शाम उदास चाहिए।
अधूरी ख्वाहिशें, अतृप्त मन, बोझिल आँखें,
मेरे मन परिंदे को इश्क़ का आकाश चाहिए।
जिम्मेदारियों के बोझ तले कितने बदल गए,
‘सुलक्षणा’ को पहले वाला विकास चाहिए।
— डॉ सुलक्षणा