कविता

काश दिख जाये

मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि

अपनी मौत कैसे देखूं,

हां देखना है यार मुझे

बनिस्पत इसके कि कोई

मेरा अपना मुझे दिखाये,

मुझे व्यवहार या चाल सिखाये,

वैसे थोड़ा थोड़ा जा रहा हूं

उसी अनचाहे रास्तों की ओर

जहां नहीं चाहता कोई स्वेच्छा से जाना,

सभी चाहते हैं फर्ज निभाना,

हर कर्ज़ चुकाना,

लेकिन फंस जाता है भंवर में,

जज्बातों के,

हालातों के,

जो करने की कोशिश करता है कि

इसे कब और कैसे कमजोर करूं,

इनके सिर पर कब पांव धरुं,

दुनिया में ऐसा कोई नहीं है जो

बुरे या आफत के वक्त में

आपको सम्बल दे,

हर रिश्ते से लेकर हर मित्र मंडली तक

तैयार बैठे हैं

शायद आपके मौत के इंतजार में,

चाल,चरित्र,चेहरा मेरा

स्थिर था है और रहेगा,

अभी तक किसी को भी

अपनी मौत देखने को नहीं मिला,

काश दिख जाये,

जब भी आये।

— राजेन्द्र लाहिरी 

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554