कहानी

जीवन-संध्या

संध्या २ महीने बाद आज जीवन से मिली थी। सावन की हल्की हल्की फुहारों वाली बारिश में जब संध्या नीले कुर्ते में जीवन के सामने आयी तो जीवन की ख़ुशी का ठिकाना न रहा। एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में संध्या का ट्रांसफर शहर हैदराबाद में हो गया था। संध्या और जीवन पुणे की एक ही कंपनी में काम करते थे।
जब संध्या पुणे में नहीं थी। तब जीवन को कभी भी इस बारिश का कोई ख़ास एहसास नहीं था। लेकिन आज उस बारिश में कुछ अलग बात थी। पार्क के बेंच पर जैसे ही संध्या ने अपना छाता बंद करके मेज पर रखा और होठों पर अपनी मनोहर मुस्कान बिखेरकर बोली – “कैसे हैं आप जनाब ?” मैं याद हूँ तुमको या नहीं ? या मेरे जाते ही सब कुछ भूल गए ?
जीवन जिसकी निगाहें बिना झुके एकटक संध्या को निहार रही थी, वो उसकी बात सुन नहीं पाया और बोला- “यार, क्या बोला तूने? मैंने ठीक से नहीं सुना। “
संध्या थोड़े गुस्से वाले अंदाज़ से बोली – “हाँ क्यों ही सुनोगे मेरी बात तुम, अपने काम से जो फुर्सत नहीं है ” साथ ही मन ही मन बड़बड़ायी- “आज तक वैसे भी क्या ही सुना है।” जीवन ये सुन नहीं पाया था।
जीवन बोला -“अरे ऐसा नहीं है , मैं तो तेरी एक-एक बात सुनता हूँ , तुझे ही यकीन नहीं होता है “
संध्या कुछ न बोली। उसके मन में काफी नाराज़गी थी जो वो जाहिर नहीं कर पायी थी। संध्या काफी शांत और सरल स्वभाव की थी। जब वह कॉलेज में थी उस समय ही उसकी जॉब पुणे की एक कंपनी में लगी थी। जीवन से उसकी मुलाकात यहीं हुई। काम के सिलसिले में उनकी बातें हो जाया करती थी। कुछ समय बीतने पर दोनों को एहसास हुआ की उन दोनों को एक दूसरे का साथ काफी अच्छा लगता है। जब वे साथ होते थे, समय वहां से पंख लगाकर कब उड़ जाता था पता ही नहीं लगता था । संध्या मन ही मन जीवन को काफी पसंद करती थी।
जीवन का जैसा नाम था वही उसके व्यक्तित्व में साफ़ झलकता था। हंसमुख चेहरा, गहरी आँखें, गंभीरता और ठहराव से उसने बड़ी-बड़ी मुश्किलें से खुद को निखारा था। संसार में खुशियों की गुल्लक खाली करना उसका स्वभाव था। वह जहाँ जाता, खुशियां बिखेरता हुआ सबके दिलों पर अपना हक़ जमा ही लेता था। तो उसका संध्या के दिल पर राज़ करना कोई बड़ी बात नहीं थी। उसके जीवन की धुरी उसूलों और नैतिक मूल्यों पर घूमती थी। जो संध्या को सबसे ज्यादा पसंद थी। इसलिए जीवन ठीक वैसा ही था जैसे संध्या के सपनों का काल्पनिक राजकुमार – जो उसे दुनिया की हर ख़ुशी देने का सामर्थ्य रखता था। जब कभी वह घर पर बात करती थी तो अनायास ही जीवन की तारीफ़ करने लगती थी फिर उसे याद आता था कि अरे! मुझे इस समय ये सब बातें नहीं करनी है। जीवन संध्या को समझता था, जो शायद आज तक कोई समझ न पाया था। जब जीवन उसके साथ होता था वो नजरें चुराकर उसको निहारती थी। हर पल बस वो भगवान का शुक्रिया अदा करती थी कि उन्होंने उसकी जीवन से मुलाकात कराके उसकी बेरंग जिंदगी में रंग भर दिया था।
हैदराबाद जाने के बाद संध्या जब जीवन से नहीं मिल पा रही थी तो उसकी कमी उसके काम पर असर डाल रही थी। संध्या के मन में जो भी था वह जीवन को उस सब का इजहार कर चुकी थी। क्यूंकि वो नहीं चाहती थी कि भगवान के इस आशीर्वाद का वो किसी तरह से भी अनादर करे। वो जीवन के लिए ज्यादा कुछ तो नहीं कर सकती थी लेकिन उसकी कोशिश पूरी रहती थी कि वह जीवन का हाथ थामे चले, जब वो अपने पथ से डगमगाए, वह ढाल बनकर उसके साथ खड़ी रहे, हर सुख दुःख में उसकी साथी बने। संध्या को कभी- कभी लगता था कि वह जो इतना जीवन के लिए समर्पित है क्या जीवन भी उसके बारे में कुछ ऐसा ही सोचता है या वो बस कल्पनाओं के शीशमहल में उसे बसाकर किसी भ्रम में अपना जीवन जी रही है। जिस जीवन पर वह जान छिड़कती है, क्या उसके जीवन में वह कुछ मायने रखती है या नहीं ?
कुछ देर मौन के बाद आखिर जीवन ने चुप्पी तोड़के पूछा -“और काम कैसा चल रहा था वहां पर ? “
संध्या- “सब ठीक ही था। वर्क लोड ज्यादा था थोड़ा यहाँ से “
जीवन- “हाँ! ये तो चलता ही रहता है। “
संध्या- “बात पलटने की आदत गयी नहीं है न तुम्हारी “
जीवन – “तुम्हारी भी तो बात पकड़ने की आदत नहीं गयी है”
संध्या – “तुम मुझे कभी नहीं समझ पाओगे। जिंदगी भर बस मैं जताती रह जाऊंगी और तुम बस सुनते रहना “
जीवन – “मुझे जताना पसंद नहीं है, तुझे पता तो है। मैं चाहता हूँ कि जिसको मुझे समझना है वो खुद ही समझ जाए। अगर मुझे जताना पड़
गया तो मेरे मन में जो भावनाएं हैं उनकी अहमियत कम हो जाएगी। “
संध्या -” तो तुम ही बता दो कि मेरी कोई अहमियत है या नहीं तुम्हारे लिए “
जीवन-” बहुत अहमियत है। बस एक बात है जो मैं बोलना चाहूंगा कि तूने मुझे अभी पूरी तरह से नहीं जान पाया है। तूने मेरे साथ ज्यादा समय नहीं बिताया है अभी तक। तो मुझे लगता है हमें एक दूसरे को अभी और समय देना चाहिए “
संध्या ये शब्द सुनके स्तब्ध थी। कि आखिर उसके इतना समय देने के बाद और उसके प्रति प्रेम में इतना समर्पित होने के बाद भी वह जीवन को जानती नहीं है और जो वह सोच रही थी वैसा तो कुछ था ही नहीं। उसके सपनों का शीशमहल न जाने कैसे एक झटके में बिखर गया। उसने जो भी सपने सजाये थे सब एक पानी के बुलबुले कि तरह कब खत्म हो गए।
जबकि जीवन के लिए संध्या बहुत महत्त्व रखती थी। उसके मन में संध्या के प्रति बहुत सम्मान था। जैसा संध्या चाहती थी जीवन उससे सहमत नहीं था और उसके उसूलों के मापदंडों पर यह खरा नहीं उतर रहा था। लेकिन जैसा कहा गया है कि मापदंड हर किसी के लिए एक समान नहीं होते हैं यह लोगों के अपने विचार, नज़रिये और अनुभव पर निर्भर करता है। एक पुरुष के भावों को समझने वाला कोई आज तक अस्तित्व में नहीं आ पाया है। और पुरुष बहुत बार अपने भावों को जताने में असमर्थ होते हैं। कई बार सामजिक पहलू इसमें बहुत बड़ा योगदान देता है, समाज एक पुरुष को भाव व्यक्त करने की उतनी इजाजत नहीं देता जितनी एक स्त्री को मिलती है। और एक ही नजरिये से कोई भी चीज़ मापने से उसका पूर्ण अर्थ कभी नहीं निकल पाता है।

— सौम्या अग्रवाल

सौम्या अग्रवाल

पता - सदर बाजार गंज, अम्बाह, मुरैना (म.प्र.) प्रकाशित पुस्तक - "प्रीत सुहानी" ईमेल - [email protected]

2 thoughts on “जीवन-संध्या

  • पुरुष मन के प्रति नारी की धारणा प्रथम बार पढ़ने को मिली। अभी तक यही पढ़ा था कि नारी को ब्रह्मा भी नहीं समझ सकते। प्रभावी प्रस्तुति।
    बधाई।

    • सौम्या अग्रवाल

      बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय😌

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