कविता

बना कौन किसका ढाल

हो रहा कैसे कैसे आज बवाल,
समझ नहीं आता देखकर भी
बना हुआ कौन किसका ढाल,
अपनी समझ के प्रति रहेंगे लोग
कब तक यूं ही भोले भाले,
लालच उनका इतना बढ़ रहा
नहीं संभल रहा संभाले,
जाल देखो फैलाए बैठा
खुद को तीक्ष्ण समझने वाले,
दिख रहा मुख गोरा भले ही
पर दिल के हैं सब काले,
सिर पीटना अपने हाल पर
ऊपर ला रहे हैं खुद जंजाल,
बना हुआ कौन किसका ढाल,
खुद तड़प रहे वो तड़पा रहा,
खुलकर मंशाएं जलता रहा,
फेंका गया कबाड़ व्यवस्था,
युवा कर रहा अपनी अवस्था,
दमित ही रह रहा इनकी बातें,
जगमग हो रहा उनकी रातें,
अनैतिक नियमों को क्यों माने,
अपने संविधान को क्यों न जानें,
जानते ही पता चलेगा
कौन कैसा जाल फैलाया है,
कौन ज्यादा ले रहा और
कौन बहुत कम पाया है,
ढाल बने बैठे हो उनका
जो हक़ तुम्हारा खा रहा,
संविधान से कुछ मिल भी गया तो
वो खुलकर भीख बता रहा,
अब तो थोड़ा गुनों,
अपनों का जनप्रतिनिधि चुनो,
जनतंत्र होने पर भी जो अपने नियम चला रहा
बातें उनकी मत सुनो,
चुनते रहे जो उनको तो
वो जारी रखेगा मनुवादी चाल,
बताओ कौन बना हुआ है किसकी ढाल।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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