हास्य व्यंग्य

थूँकना, चाटना और थूँककर चाटना (व्यंग्य)

ऊँचे पदों पर बैठे लोगों को देखकर मेरा मन भी ललचाता है कि हाय! हम क्यों उस सिंहासन पर क्यों नहीं? मन पसंद मिठाई मुँह को लार से आप्लावित कर देती है। पर मैं उसे गटक लेता हूँ, थूँकता नहीं। इसलिए नहीं कि मैं थूँक कर प्रधानमंत्री जी के स्वच्छ भारत अभियान का विरोधी हूँ। बल्कि इसलिए कि कहीं थूँक कर चाटना न पड़े। थूँक कर चाटनेवाले पर लोग थू-थू करते हैं। हमारे देश की राजनीति में थूँक कर चाटना अब एक कला हो गई है। राजनैतिक दल एक बार में किलो-किलो भर थूँकते नहीं, अपितु वमन करते हें। फिर उसे चाटते भी नहीं! गटकते भी नहीं!! बल्कि उसे पी जाते हैं। होता कुछ ऐसा है कि पहले दुराचार के नाम पर किसी को खूब गरियाया जाता है। उसकी पोल खोली जाती है। उस पर कीचड़ उछाला जाता है। उसका भ्रष्ट शिरोमणि की उपाधि से राजतिलक किया जाता है। और जब पेट भर थूँक लिया जाता है। तो उस थूँक को चाट लिया जाता है। उस चाटे हुए थूँक से राजनेता अपना पेट भरते हैं।
छी बाबा! कितने गंदे लोग हैं ये!! नगरवधुएँ भी ऐसा नहीं करतीं। उनकी भी कुछ तो इज़्ज़त होती है ना। मान-सम्मान और आत्मसम्मान की रक्षा की शिक्षा भारतीय समाज की आदर्श परंपरा है। आत्मसम्मान के लिए राणा ने घास की रोटी खा ली किंतु थूँक कर चाटा नहीं। छत्रपति शिवाजी ने औरंगजेब के मुँह पर थूँकना उचित समझा लेकिन स्वाभिमान पर आँच न आने दी। छत्रपति संभाजी अपनी देह को नुचवाते चले गये लेकिन एक बार जो थूँक दिया तो फिर चाटा नहीं।इस समय इन योद्धाओं के नाम पर तंदूरी रोटियाँ खायी जा रही है विकल्प बटर। गुरू तेगबहादुर जी की थूँक तो संसार सबसे कीमती थूँक थी। दो बेटों को दीवारों में ज़िंदा चिनवाने के बदले थूकीं गई संपत्ति को चाट भी सकते थे। पर वे सरदार थे। धूल चटा सकते थे। थूँक चाट नहीं सकते थे। पर आज परिस्थिति बदल गयी है। थूँक-थूँक कर चाटा जाता है और चाट-चाट कर थूँका जाता है।
ऐसा कहते हैं कि आसमान पर नहीं थूँकना चाहिए। परिणाम क्या होगा, समझाने की आवश्यकता नहीं। राजनेताओं उन आसमान के सितारों पर भी थूँकने से परहेज नहीं किया जिनकी कुर्बानियों और तप के कारण उनके बाप-दादी-नाना ने सत्ता सुंदरी का उपभोग क्रिया। इन सितारों ने अपनी जवानी सेलुलर जेल की दीवारों पर थूँक-थूँक कर गोरे अंग्रेजों के मुखड़े पर कालिख पोत दी और यहाँ युवराज और युवराज्ञी देश में घूम-घूम कर इन नक्षत्रों पर थूँक रहे हैं और परिणामस्वरूप अपना थोबड़ा बिगड़ता रहे हैं। चमचे न सिर्फ थूँक कर चाट रहे हैं, अपितु उनके थूँके को शहद समझकर चाट रहे है। कुछ को तो पद का मोह उनके जूते भी चटवा रहा है।
आज देश को देशभक्तों की ज़रूरत है। चाटुकारों की नहीं। कम से कम थूँक कर चाटनेवालों की तो बिल्कुल नहीं। ज़रा अपने आसपास देखिए कहीं कोई भ्रष्ट शिरोमणि को महिमामंडित कर आप भी तो थूँक कर चाटने की तैयारी में नहीं?

— शरद सुनेरी