अभिलेखों की गूंज : दस्तावेज़ जो इतिहास भी हैं, भविष्य भी
अभिलेख दिवस का औचित्य और वैश्विक परिप्रेक्ष्य
हर वर्ष 9 जून को पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय अभिलेख दिवस मनाया जाता है। यह एक ऐसा दिवस है जो उन अभिलेखों को सम्मानित करने के लिए समर्पित है, जो हमारे इतिहास, प्रशासन, समाज और सभ्यता की साक्ष्य-स्वरूप नींव होते हैं। वर्ष 2025 में यह दिन अपनी 16वीं वर्षगांठ मना रहा है और यह अवसर इस बात को समझने का है कि अभिलेख मात्र बीते समय की जानकारी नहीं होते, बल्कि वे भविष्य की योजना और वर्तमान की पारदर्शिता के लिए भी उतने ही आवश्यक हैं। एक समाज की स्मृति शक्ति उसके अभिलेखों में निहित होती है। वे हमें यह बताने का कार्य करते हैं कि किस तरह से एक राष्ट्र ने अपने शासन, नागरिकों और नीतियों के बीच संतुलन बनाया। अंतरराष्ट्रीय अभिलेख परिषद (ICA) के प्रयासों से यह दिन वैश्विक स्तर पर स्वीकृत हुआ है। अभिलेखों का महत्व केवल सरकारी दफ्तरों तक सीमित नहीं है, बल्कि ये व्यक्ति, समुदाय और संस्थानों की समवेत यात्रा का प्रमाण बनते हैं। इस दिवस की स्थापना के पीछे यही भावना रही है कि दुनिया के हर कोने में अभिलेखों की महत्ता को समझा जाए और उन्हें संरक्षण देने के लिए व्यापक सामाजिक सहभागिता को प्रेरित किया जाए। डिजिटल युग में जब सूचनाएँ क्षण भर में बदलती हैं, तब स्थायी दस्तावेजों की भूमिका और भी अधिक निर्णायक बन जाती है। इसी कारण यह दिवस सिर्फ अभिलेखागारों का उत्सव नहीं, बल्कि समाज की सामूहिक स्मृति को संरक्षित रखने का वैश्विक आह्वान है।
अभिलेख क्या हैं : सरल शब्दों में समझना जरूरी क्यों है?
‘अभिलेख’ शब्द सुनते ही बहुत से लोगों के मन में यह विचार आता है कि यह केवल पुराने कागजों या फाइलों से जुड़ा हुआ कोई जटिल प्रशासनिक विषय है, जबकि सच्चाई यह है कि अभिलेख हमारे जीवन से जुड़ी हर जानकारी का व्यवस्थित रूप होते हैं। चाहे वह जन्म प्रमाणपत्र हो, एक पुरानी चिट्ठी, एक स्कूल की अंकतालिका, एक पारिवारिक संपत्ति का रजिस्टर, या फिर सरकार द्वारा लिया गया कोई ऐतिहासिक निर्णय — ये सब अभिलेख ही तो हैं। ये वे दस्तावेज होते हैं जो किसी कार्य, निर्णय या प्रक्रिया का साक्ष्य होते हैं। अभिलेखों की उपस्थिति हमारे जीवन को विधिपूर्वक चलाने में सहायक होती है। वे न केवल अतीत का दस्तावेज होते हैं, बल्कि वर्तमान में होने वाले निर्णयों के लिए मार्गदर्शन भी प्रदान करते हैं। जब हम कहते हैं कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है, तो इस लोकतंत्र का आधार जनता की भागीदारी और पारदर्शिता पर आधारित होता है, जिसे सुनिश्चित करने के लिए अभिलेखों का सुरक्षित और सुलभ रहना अत्यंत आवश्यक है। उदाहरणस्वरूप, जब कोई व्यक्ति सूचना के अधिकार के तहत किसी जानकारी की मांग करता है, तो वह उसी अभिलेख प्रणाली पर आधारित होता है। यही कारण है कि हमें बच्चों से लेकर वयस्कों तक, हर किसी को यह सिखाना चाहिए कि अभिलेख केवल सरकारी फाइलें नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक स्मृति, अधिकार और उत्तरदायित्व के आधार हैं। जब यह समझ व्यापक रूप से समाज में विकसित होगी, तभी अभिलेख दिवस का उद्देश्य सार्थक सिद्ध होगा।
अभिलेख दिवस का इतिहास : ICA और 9 जून का महत्व
9 जून को अंतरराष्ट्रीय अभिलेख दिवस मनाए जाने के पीछे एक ऐतिहासिक कारण है। यह तिथि वर्ष 1948 में अंतरराष्ट्रीय अभिलेख परिषद (International Council on Archives – ICA) की स्थापना की याद में चुनी गई थी। ICA की स्थापना UNESCO के संरक्षण में की गई थी और इसका उद्देश्य दुनिया भर में अभिलेखों की रक्षा, संरक्षण, प्रबंधन और उपयोगिता को बढ़ावा देना था। वर्ष 2007 में ICA ने अपने सदस्यों के बीच यह प्रस्ताव रखा कि 9 जून को हर साल एक दिन अभिलेखों के नाम समर्पित किया जाए। इसका उद्देश्य था समाज में यह जागरूकता फैलाना कि अभिलेख केवल संग्रहालयों में बंद रहने वाली वस्तुएँ नहीं हैं, बल्कि जीवंत समाज और लोकतंत्र का महत्वपूर्ण अंग हैं। इसके बाद से दुनिया भर के कई देशों ने इस दिन को उत्सव के रूप में मनाना शुरू किया। भारत, अमेरिका, कनाडा, फ्रांस, जापान, दक्षिण अफ्रीका जैसे अनेक देशों में इस दिन को अभिलेखागारों की विशेष प्रदर्शनियों, संगोष्ठियों और नागरिक सहभागिता से जोड़ा गया। भारत में भी राष्ट्रीय अभिलेखागार (NAI) हर वर्ष इस अवसर पर दस्तावेजों की प्रदर्शनी, शोधार्थियों के लिए सेमिनार, अभिलेख प्रबंधन कार्यशालाएं और विद्यार्थियों के लिए जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करता है। यह दिन यह भी बताता है कि इतिहास केवल किताबों में नहीं, बल्कि अभिलेखों की धूल भरी परतों में भी जीवित रहता है — जिसे छूने, पढ़ने और समझने के लिए समाज को आगे आना होगा।
भारत में अभिलेखों की परंपरा और राष्ट्रीय अभिलेखागार की भूमिका
भारत में अभिलेख संरक्षण की परंपरा कोई नई बात नहीं है। प्राचीन काल से ही शिलालेख, ताम्रपत्र, पांडुलिपियाँ और भित्तिलेखों के माध्यम से सूचना संचित की जाती रही है। मौर्यकालीन शासन व्यवस्था में राजा चंद्रगुप्त मौर्य और उनके प्रधानमंत्री चाणक्य द्वारा ‘अर्थशास्त्र’ जैसे ग्रंथ में अभिलेखीय प्रक्रियाओं का उल्लेख मिलता है। सम्राट अशोक के शिलालेख भारत के प्राचीनतम अभिलेखों में गिने जाते हैं, जिनमें शासकीय आदेश, नैतिक शिक्षाएँ और प्रशासनिक घोषणाएँ दर्ज हैं। इसके बाद गुप्त वंश, चालुक्य, मौर्य, मुगल और ब्रिटिश काल में भी दस्तावेजी परंपरा आगे बढ़ती रही। आधुनिक भारत में राष्ट्रीय अभिलेखागार (National Archives of India – NAI) की स्थापना 11 मार्च 1891 को कोलकाता में हुई थी, जिसे बाद में स्वतंत्रता के पश्चात 1911 में नई दिल्ली स्थानांतरित किया गया। यह संस्था आज भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अधीन काम करती है और इसके पास करोड़ों ऐतिहासिक दस्तावेज सुरक्षित हैं, जिनमें मुगलों से लेकर स्वतंत्रता संग्राम और संविधान निर्माण तक की महत्वपूर्ण फाइलें सम्मिलित हैं। इस संस्था का कार्य सिर्फ संग्रह ही नहीं, बल्कि दस्तावेजों का संरक्षण, वर्गीकरण, डिजिटलीकरण और शोधार्थियों को सुविधा उपलब्ध कराना भी है। इसके अलावा, भारत के लगभग हर राज्य में राज्य अभिलेखागार कार्यरत हैं। वर्तमान समय में अनेक निजी संग्रहालय, विश्वविद्यालय और शोध संस्थान भी अभिलेखों के संरक्षण में सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं। यह कह सकते हैं कि भारत की अभिलेखीय परंपरा ज्ञान, संस्कृति और लोकतंत्र के संरक्षण का मूल आधार है, जिसे जन-जागरूकता से और अधिक मज़बूती दी जा सकती है।
डिजिटल युग में अभिलेख संरक्षण की नई चुनौतियाँ और संभावनाएँ
21वीं सदी के वर्तमान डिजिटल युग में जहां सूचना की मात्रा और गति दोनों ने नई ऊँचाइयाँ छू ली हैं, वहीं अभिलेख संरक्षण की दिशा में भी क्रांतिकारी परिवर्तन हुए हैं। पहले जहां दस्तावेज केवल कागज पर लिखे जाते थे, वहीं अब इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों ने उन्हें डिजिटल रूप में संजोना संभव बना दिया है। भारत सरकार का ‘डिजिटल इंडिया’ मिशन इस दिशा में एक दूरगामी पहल है, जिसके तहत हजारों ऐतिहासिक और सरकारी अभिलेखों को स्कैन करके डिजिटल प्लेटफॉर्म पर डाला गया है। आज अनेक मंत्रालय और विभाग ‘ई-ऑफिस’ प्रणाली के तहत अपने अभिलेखों को पेपरलेस स्वरूप में संग्रहीत कर रहे हैं। लेकिन इस डिजिटल संक्रमण के साथ-साथ कई चुनौतियाँ भी सामने आई हैं। इनमें साइबर सुरक्षा, डिजिटल डेटा का दीर्घकालिक संरक्षण, फॉर्मेट की अस्थिरता, तकनीकी अपग्रेडेशन की आवश्यकता और डिजिटलीकरण की प्रक्रिया में होने वाली त्रुटियाँ प्रमुख हैं। एक डिजिटल दस्तावेज को 50 वर्षों बाद उसी गुणवत्ता में पढ़ना तभी संभव है जब उसके लिए उपयुक्त तकनीकी संरचना और बैकअप व्यवस्था मौजूद हो। इसके लिए न केवल बेहतर तकनीक, बल्कि प्रशिक्षित अभिलेखाध्यक्षों की आवश्यकता है। साथ ही एक राष्ट्रीय डिजिटल संरक्षा नीति (National Digital Preservation Policy) बनाना समय की मांग है। यदि हम इन चुनौतियों को दूर कर लें, तो डिजिटल अभिलेख आने वाले युगों में हमारे ज्ञान, संस्कृति और शासन की अमूल्य धरोहर बन सकते हैं, जिन्हें दुनिया के किसी भी कोने से देखा, पढ़ा और समझा जा सकेगा।
[6] सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI) और अभिलेखों की पारदर्शिता में भूमिका
जब हम लोकतंत्र की बात करते हैं, तो सूचना की पारदर्शिता और नागरिकों की भागीदारी इसका महत्वपूर्ण स्तंभ बनती है। भारत में 2005 में लागू हुआ ‘सूचना का अधिकार अधिनियम’ (Right to Information Act – RTI) इस दिशा में एक ऐतिहासिक पहल थी। इस अधिनियम ने देश के प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार प्रदान किया कि वह किसी भी सरकारी संस्था से सूचना मांग सकता है और संस्था उस सूचना को देने के लिए बाध्य है — बशर्ते वह राष्ट्रीय सुरक्षा, गोपनीयता या अदालत द्वारा प्रतिबंधित श्रेणियों में न आती हो। अब यहां यह समझना आवश्यक है कि यह सूचना कैसे दी जाती है? इसका उत्तर है — अभिलेखों के माध्यम से। यदि सरकारी विभागों के पास उचित तरीके से संग्रहीत अभिलेख नहीं होंगे, तो वे नागरिकों को सही सूचना कैसे प्रदान कर पाएंगे? यही कारण है कि RTI अधिनियम में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया गया है कि प्रत्येक सार्वजनिक प्राधिकरण को अपनी गतिविधियों, निर्णयों, प्रक्रियाओं और खर्चों से संबंधित अभिलेखों को व्यवस्थित ढंग से संरक्षित रखना होगा। यह अभिलेख कागजी भी हो सकते हैं और डिजिटल भी। सूचना का अधिकार केवल एक क़ानूनी औजार नहीं, बल्कि एक नैतिक ज़िम्मेदारी भी है, जो यह सुनिश्चित करता है कि शासन पारदर्शी, जवाबदेह और जनोन्मुखी बने। इस प्रक्रिया में अभिलेख वही भूमिका निभाते हैं जो एक इतिहासकार के लिए प्राथमिक स्रोत। इस प्रकार RTI और अभिलेखों का संबंध केवल तकनीकी नहीं, बल्कि लोकतंत्र की आत्मा से जुड़ा हुआ है। अतः अभिलेख दिवस को मनाना RTI जैसे अधिकारों की रक्षा का भी उत्सव बन जाता है।
युवाओं और विद्यार्थियों की भूमिका : अभिलेखों से जुड़ाव का महत्व
आज की युवा पीढ़ी तकनीक में निपुण है, सोशल मीडिया पर सक्रिय है और जानकारी को त्वरित रूप से प्राप्त करने की अभ्यस्त है। परंतु यह भी आवश्यक है कि युवा अभिलेखों की महत्ता को भी समझें और उनसे जुड़ें। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि अभिलेखों को केवल शोधकर्ताओं या इतिहासकारों का विषय माना जाता है, परंतु यह दृष्टिकोण अधूरा है। विद्यार्थियों को यदि शुरू से ही यह बताया जाए कि अभिलेख किसी सभ्यता की रीढ़ होते हैं, तो वे अपने आसपास की सूचनाओं को अधिक गंभीरता और उत्तरदायित्व के साथ ग्रहण करेंगे। विद्यालयों और महाविद्यालयों में अभिलेख अध्ययन, संग्रहालय भ्रमण, स्थानीय अभिलेख कार्यालयों की यात्राएं, परियोजनाएँ और कार्यशालाएं करवाई जानी चाहिए। इससे अभिलेखों के प्रति जिज्ञासा बढ़ेगी और युवा स्वयं आगे आकर इन धरोहरों के संरक्षण में भाग लेंगे। उदाहरण के लिए, एक विद्यार्थी अपने गांव के अभिलेखों — जैसे भूलेख, ग्रामसभा की बैठक की रिपोर्ट, स्कूल का स्थापना पत्र — को डिजिटल माध्यम से संरक्षित करने की पहल कर सकता है। इस प्रकार युवा पीढ़ी एक सेतु बन सकती है — अतीत और भविष्य के बीच। अभिलेखों को केवल देखने का नहीं, बल्कि उनसे सीखने और भविष्य के लिए योजना बनाने का अभ्यास यदि युवावस्था में ही विकसित हो जाए, तो भारत का दस्तावेजीय भविष्य बेहद समृद्ध हो सकता है। अतः अभिलेख दिवस पर युवाओं को विशेष रूप से प्रेरित किया जाना चाहिए कि वे अभिलेखों को ‘पुरानी चीजें’ नहीं, बल्कि ‘भविष्य का संसाधन’ मानें।
अभिलेखों में रोजगार, करियर और अनुसंधान की संभावनाएँ
अभिलेखों का क्षेत्र केवल संरक्षण या संग्रह तक सीमित नहीं है; इसमें शिक्षा, रोजगार और शोध के अनेक द्वार खुलते हैं। आज के समय में अभिलेख प्रबंधन (Records Management), सूचना विज्ञान (Information Science), अभिलेखागार विज्ञान (Archival Science), डिजिटलीकरण (Digitization) और पुस्तकालय एवं सूचना सेवा (Library and Information Science) जैसे विषयों में डिग्रियाँ और डिप्लोमा पाठ्यक्रम चल रहे हैं। विश्वविद्यालयों और सरकारी संस्थानों के साथ-साथ निजी कंपनियाँ भी डेटा आर्काइविंग और क्लाउड स्टोरेज जैसे क्षेत्रों में अभिलेख विशेषज्ञों की मांग कर रही हैं। एक प्रशिक्षित अभिलेखाध्यक्ष की भूमिका केवल दस्तावेजों को सुरक्षित रखने तक सीमित नहीं होती, बल्कि वह उनके वर्गीकरण, अनुक्रमणिका, उपयोग, पुनःप्राप्ति और नीतिगत निर्माण में भी सहायता करता है। इसके अतिरिक्त, अभिलेखों पर आधारित शोध — चाहे वह सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक या सांस्कृतिक हो — एक विशाल क्षेत्र है, जिसमें इतिहास, मानवविज्ञान, समाजशास्त्र, विधि, लोकसंस्कृति, भूगोल और साहित्य के विद्यार्थी अपना योगदान दे सकते हैं। सरकारी नौकरियों में भी ‘अभिलेख अधिकारी’, ‘रिसर्च फेलो’, ‘डिजिटल आर्काइविंग एक्सपर्ट’, ‘मीडिया कंसल्टेंट’ जैसे पद उपलब्ध हैं। भारत के राष्ट्रीय अभिलेखागार, राज्य अभिलेखागार, विश्वविद्यालय पुस्तकालय, संग्रहालय, अखबार, टीवी चैनल, एनजीओ, थिंक टैंक और शोध संस्थानों में इनकी आवश्यकता बढ़ रही है। यह समझना आवश्यक है कि अभिलेख केवल मूक दस्तावेज नहीं, बल्कि ज्ञान का एक जीवंत भंडार हैं, जिनसे जुड़कर युवा न केवल राष्ट्र निर्माण में भागीदार बन सकते हैं, बल्कि अपने करियर की भी नई दिशा गढ़ सकते हैं।
वैश्विक दृष्टिकोण : विभिन्न देशों में अभिलेख संरक्षण की अनुकरणीय पहलें
वर्तमान वैश्विक परिप्रेक्ष्य में अनेक देशों ने अभिलेख संरक्षण को अत्यंत गंभीरता से लिया है। उदाहरण के तौर पर, फ्रांस का Archives Nationales प्रणाली एक सुव्यवस्थित और जन-सुलभ व्यवस्था है, जिसमें प्रत्येक नागरिक को डिजिटल माध्यम से ऐतिहासिक दस्तावेजों तक पहुंच प्राप्त है। संयुक्त राज्य अमेरिका में National Archives and Records Administration (NARA) केवल संघीय दस्तावेजों की रक्षा ही नहीं करता, बल्कि जन-शिक्षा, रिसर्च और डोक्यूमेंट्री निर्माण को भी बढ़ावा देता है। जापान में पारंपरिक पांडुलिपियों और शाही आदेशों को संजोने के लिए हाई-टेक संरक्षण प्रयोगशालाएं स्थापित की गई हैं। ऑस्ट्रेलिया में हर सरकारी दस्तावेज को एक विशिष्ट कोड दिया जाता है और उसके स्कैन को Troven जैसे पब्लिक पोर्टल पर अपलोड किया जाता है। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद काल से जुड़े ऐतिहासिक दस्तावेजों का संरक्षण और शोध कार्य अत्यंत संवेदनशील ढंग से किया जा रहा है। इन सभी देशों की एक समानता यह है कि वहां सरकार, विश्वविद्यालय और नागरिक समाज मिलकर अभिलेख संरक्षण की जिम्मेदारी निभाते हैं। भारत में भी ऐसी ही व्यवस्था विकसित की जा सकती है जिसमें हर जिले में एक डिजिटल अभिलेख केंद्र, हर पंचायत में एक अभिलेख सहायक और हर विद्यालय में एक ‘लोक-अभिलेख कक्षा’ की स्थापना हो। जब तक समाज का हर अंग अभिलेखों को अपनी पहचान का हिस्सा नहीं मानेगा, तब तक संरक्षण केवल सरकारी दायित्व बना रहेगा। अंतरराष्ट्रीय अभिलेख दिवस इन वैश्विक पहलों से प्रेरणा लेकर भारत में भी जन-आधारित अभिलेख क्रांति को जन्म देने का अवसर बन सकता है।
हर वर्ष अंतरराष्ट्रीय अभिलेख दिवस की एक थीम होती है, जो उस वर्ष के वैश्विक सामाजिक, राजनीतिक, तकनीकी और सांस्कृतिक परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए निर्धारित की जाती है। 2025 की थीम – “Empowering Archives – Inclusion, Accessibility and Accountability” – एक अत्यंत सामयिक और दूरदर्शी घोषणा है। ‘Empowering Archives’ का तात्पर्य है कि अब अभिलेखों को केवल संग्रहणीय वस्तु नहीं, बल्कि समाज को सशक्त करने वाले उपकरण के रूप में देखा जाए। ‘Inclusion’ यह संकेत करता है कि अभिलेख केवल किसी विशिष्ट वर्ग, भाषा या क्षेत्र तक सीमित नहीं होने चाहिए, बल्कि समाज के सभी वर्गों — जैसे ग्रामीण समुदाय, महिलाओं, दिव्यांगजनों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों — के अभिलेखों को समान रूप से संजोना चाहिए। इसी प्रकार ‘Accessibility’ का अर्थ है कि हर नागरिक को चाहे वह छात्र हो या शोधकर्ता, इतिहासकार हो या सामाजिक कार्यकर्ता, अभिलेखों तक सरल और तकनीकी रूप से समर्थ पहुंच मिलनी चाहिए। यह डिजिटल लोकतंत्र की मूल भावना है। अंततः ‘Accountability’ यह सुनिश्चित करता है कि अभिलेखों का उपयोग केवल जानकारी देने के लिए नहीं, बल्कि शासन, प्रशासन और सार्वजनिक कार्यों की जवाबदेही तय करने के लिए भी होना चाहिए। यह थीम केवल नारा नहीं, बल्कि अभिलेखों की भूमिका का व्यापक पुनर्परिभाषण है — जो कहता है कि अभिलेख केवल अतीत नहीं, वर्तमान की जांच और भविष्य की दिशा का निर्धारण भी करते हैं। अतः इस वर्ष की थीम एक वैश्विक आह्वान है कि हम सभी – सरकार, संस्थान, नागरिक – मिलकर अभिलेखों को समावेशी, पारदर्शी और उत्तरदायी बनाएं।
कोविड-19 महामारी और आपात स्थितियों में अभिलेखों का अभूतपूर्व महत्व
कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी ने यह दिखा दिया कि अभिलेख केवल अतीत की झलक भर नहीं होते, वे जीवन और मृत्यु के फैसलों में भी मार्गदर्शक बन सकते हैं। इस महामारी के दौरान जब दुनिया भर के देश लॉकडाउन, वैक्सीनेशन, आपात चिकित्सा सेवाओं, मृत्यु दर, रोग के प्रसार, संसाधनों की आपूर्ति इत्यादि से जूझ रहे थे, तब यह अभिलेख ही थे जिन्होंने डेटा और निर्णय का आधार प्रदान किया। भारत में आरोग्य सेतु एप हो या कोविन पोर्टल, प्रत्येक टीकाकरण और संक्रमण रिकॉर्ड को डिजिटल अभिलेखों के रूप में संग्रहीत किया गया। इससे यह सुनिश्चित किया गया कि नागरिकों को प्रमाणपत्र, मेडिकल हिस्ट्री और सरकारी सहायता समय पर और प्रमाणिक रूप में मिल सके। इसके अतिरिक्त, महामारी के दौरान समाचार पत्रों, टीवी चैनलों और सरकारी घोषणाओं के सभी अभिलेख भविष्य के लिए एक महत्वपूर्ण संदर्भ बन चुके हैं। महामारी के बाद शोधकर्ता, नीति-निर्माता और स्वास्थ्य विशेषज्ञ इन अभिलेखों के माध्यम से यह अध्ययन कर पाएंगे कि किन नीतियों ने कितना प्रभाव डाला। साथ ही, यह भी देखा गया कि जहां अभिलेख डिजिटल रूप में उपलब्ध नहीं थे, वहां राहत कार्य धीमा और असंगठित रहा। यह सीख हमें यह बताती है कि हर आपातकालीन स्थिति के लिए दस्तावेजों का डिजिटलीकरण, वर्गीकरण और त्वरित उपलब्धता अनिवार्य है। अतः अभिलेख दिवस 2025, कोविड के अनुभवों से सबक लेते हुए, भविष्य में किसी भी आपदा या वैश्विक संकट से निपटने के लिए एक सशक्त दस्तावेजीय ढांचे के निर्माण का संदेश देता है।
व्यक्तिगत अभिलेखों का संरक्षण : नागरिकों की जिम्मेदारी और प्रशिक्षण की आवश्यकता
अभिलेख केवल सरकारी फाइलें या ऐतिहासिक दस्तावेज ही नहीं होते, बल्कि हर नागरिक के जीवन में भी कई ऐसे कागजात और डिजिटल सूचनाएँ होती हैं जिन्हें संरक्षित रखना आवश्यक है। उदाहरणस्वरूप, जन्म प्रमाण पत्र, शिक्षा प्रमाणपत्र, पहचान पत्र (आधार, पासपोर्ट), बैंक दस्तावेज, संपत्ति संबंधित कागजात, स्वास्थ्य रिकॉर्ड, बीमा पॉलिसियाँ, पेंशन दस्तावेज, वैवाहिक और कानूनी अनुबंध — ये सभी व्यक्तिगत अभिलेखों की श्रेणी में आते हैं। अफसोस की बात यह है कि सामान्यतः लोग इन अभिलेखों के महत्व को तब तक नहीं समझते जब तक कोई आपात स्थिति न आ जाए। बहुत बार देखा गया है कि आवश्यक दस्तावेज समय पर उपलब्ध न होने के कारण व्यक्ति को विद्यालय में दाखिला, बैंक लोन, या सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं मिल पाता। इसके समाधान के लिए स्कूल स्तर से ही नागरिकों को अभिलेखों के संरक्षण, डिजिटलीकरण, वर्गीकरण और सुरक्षा के बारे में सिखाया जाना चाहिए। मोबाइल एप आधारित पर्सनल डॉक्युमेंट मैनेजर, क्लाउड स्टोरेज सेवाएं, पेनड्राइव सुरक्षा, दोहरी प्रतियां और डिजिटल हस्ताक्षर जैसे उपाय अपनाकर एक आम नागरिक भी अपने अभिलेखों को सुरक्षित रख सकता है। कुछ राज्य सरकारों ने ‘डिजिटल लॉकर’ की सुविधा देकर इस दिशा में सराहनीय कदम उठाया है, किंतु इसकी जागरूकता और प्रशिक्षण अभी भी व्यापक स्तर पर आवश्यक है। जब हर नागरिक स्वयं अभिलेखों के संरक्षण की जिम्मेदारी लेगा, तभी राष्ट्रीय स्तर पर अभिलेखीय सुरक्षा मजबूत होगी। अतः इस अभिलेख दिवस पर यह संकल्प लेना अत्यंत आवश्यक है कि हम अपने निजी अभिलेखों को भी उसी जिम्मेदारी और समर्पण से संभालें जैसे किसी ऐतिहासिक धरोहर को।
निष्कर्ष : अभिलेख संरक्षण एक राष्ट्रधर्म, एक भविष्यदर्शी कर्तव्य
अभिलेख दिवस केवल एक तारीख नहीं, बल्कि यह स्मरण का दिवस है — कि हम कहां से आए, क्या-क्या झेला, क्या सीखा और क्या भूल नहीं दोहरानी चाहिए। अभिलेख न केवल हमारी पहचान का हिस्सा हैं, बल्कि हमारी प्रगति, संस्कृति और उत्तरदायित्व का प्रमाण भी हैं। किसी भी सभ्यता को उसकी लेखबद्ध धरोहरें ही दीर्घजीवी बनाती हैं। भारत जैसे देश, जहां हजारों सालों की परंपरा, विविध भाषाएँ, असंख्य जातीय समूह और सामाजिक परतें हैं, वहां अभिलेखीय व्यवस्था को केवल ‘रिकॉर्ड कीपिंग’ नहीं बल्कि ‘नैशनल पिलर’ के रूप में देखा जाना चाहिए। अंतरराष्ट्रीय अभिलेख दिवस हमें यह चेतावनी भी देता है कि यदि हम आज अपने दस्तावेजों को नहीं बचाएंगे, तो कल इतिहास हमें याद नहीं रखेगा। अतः सरकार, शैक्षणिक संस्थान, नागरिक समाज और हर व्यक्ति को मिलकर इस दस्तावेजीय आंदोलन में भाग लेना चाहिए। हमें यह समझना होगा कि अभिलेख केवल अतीत को नहीं दर्शाते, वे भविष्य को रचते हैं। आज का डिजिटल युग हमें यह सुविधा दे रहा है कि हम अभिलेखों को कहीं भी, कभी भी, किसी भी रूप में सुरक्षित रख सकें — अब केवल आवश्यकता है संकल्प, संरचना और सहभागिता की। 16वां अंतरराष्ट्रीय अभिलेख दिवस एक अपील है — कि हम सभी अपने इतिहास के रक्षक बनें, अपने वर्तमान के संरक्षक बनें और भविष्य के लिए उत्तरदायी बनें।
— डॉ. शैलेश शुक्ला