बारिश की वो सुहानी शाम — झील के किनारे,
बारिश का मौसम वाक़ई इश्क़ और यादों से लबरेज़ होता है। अगर मुझे इन लम्हों के लिए कोई जन्नत चुननी हो, तो पहाड़ों की गोद में बसी किसी पुरसुकून झील का किनारा मेरा इंतिख़ाब होगा—जहाँ बादलों की ओट से झलकती धूप झील की सतह पर नूर बिखेर देती है, और हरियाली में ताज़गी की खुशबू घुल जाती है।
ऐसी ही एक शाम थी, जब आरव और सिया, पहाड़ों के दामन में बसी एक पुरानी झील के किनारे, रिमझिम बारिश और हल्की धुंध के दरमियान, ख़ामोशी से टहल रहे थे।
झील के पानी पर गिरती बारिश की बूंदें, जैसे उनकी धड़कनों के साथ हमआहंग हो गई हों।
सिया ने अपनी छतरी आरव के सर पर तान दी,
“बारिश में भीगना तुम्हें इतना पसंद क्यों है?”
आरव मुस्कुरा उठा,
“क्योंकि बारिश में हर शै नई लगती है—ठीक हमारी मोहब्बत की तरह।”
दोनों झील के किनारे रखी एक पुरानी लकड़ी की बेंच पर आ बैठे। सामने पहाड़ों पर धुंध की चादर बिछी थी, और झील की सतह पर दूर-दूर तक लहरें दौड़ रही थीं।
सिया ने आरव का हाथ थाम लिया, उसकी हथेली की हल्की गर्मी बारिश की ठंडक में भी सुकून दे रही थी।
“याद है, पहली बार हम यहीं मिले थे?”
सिया ने धीमे से पूछा।
“हाँ,” आरव ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया,
“तब भी बारिश हो रही थी, और तुम्हारे भीगे बालों में अजीब सी मासूमियत थी—जो आज भी वैसी ही है।”
बारिश की बूंदें झील के पानी में गिरती रहीं, और दोनों की आँखों में ख्वाबों की चमक तैरती रही।
उस हसीन फिज़ा में, वो दोनों अपने मुस्तक़बिल के ख़्वाब बुनते रहे—जैसे बारिश की हर बूँद उनकी मोहब्बत की दास्तान लिख रही हो।
बारिश, पहाड़ और झील का किनारा—इन सबका संगम इश्क़ को और भी गहरा और पाक बना देता है।
ऐसे मौसम में अपने महबूब के साथ गुज़ारा हर लम्हा, उम्र भर की सबसे हसीन याद बन जाता है।
— डॉ. मुश्ताक़ अहमद शाह