राजनीति

वैश्विक परिस्थितियाँ और हम

मियाँ शरीफ़ अमरीका क्यों नहीं गये, इसका राज़ खुल गया है। चीन के द्वारा फिर एक बार आतंकी संगठन जैशे-मुहम्मद के सरगना अज़हर मसूद पर संयुक्त राष्ट्र के द्वारा लगाये जाने वाले प्रतिबन्धों को वीटो करवाना था। अमरीका जाते तो कुछ अटपटे प्रश्नों के उत्तर देने पड़ सकते थे।

विडंबना यह है कि जिस कम्यूनिज़िम (उस समय रूस और आज चीन) के प्रसार पर नज़र रखने की गर्ज़ से, भारत की आत्मा के टुकड़े कर के, अमरीका और ब्रिटेन ने मिल कर पाकिस्तान रूपी बफर ज़ोन की उपद्रवी रचना की थी, वही आज चीन के पक्ष में खड़ा नज़र आता है।

पाकिस्तान का जहाँ तक सवाल है, वो अपनी काश्मीरी ख़ब्त से बाहर नहीं निकल पा रहा है। ज़मीनदारी मानसिकता रखने वाले उसके हुकमरानों को आवाम की परेशानियों से कोई सरोकार नहीं है। उन्हें तो आवाम को बरगलाने की खातिर ऐसे ही बे सिर-पैर के मुद्दों की अफीम चाहिये और चाहिये अपनी ऐशगाहों के लिये रकम, फिर वो चाहे जिधर से और चाहे जैसे भी आवे।

अमरीकी मजबूरी यह है कि भारत, जिसे  हाल तक वो रूस के खेमे का समझता रह था, के आण्विक प्रयासों को बराबर करने की गर्ज़ से, पूर्व में पाकिस्तान को दी गयी क्षद्म आण्विक तकनीकी मदद आज उसके ही सर का दर्द साबित हो रही है।  इन आण्विक हथियारों की सुरक्षार्थ वो पाकिस्तान की तरफदारी करने को मजबूर है और उसकी हर जायज़-नाजायज़ माँगों को मानता रहता है। F16 जहाजों की बिक्री और वित्तीय मदद में कोई कमी न करना इस बात का प्रमाण है ।

चीन ने पाकिस्तान को अपना हरमौसम दोस्त इसलिये कुबूल किया है क्योंकि वह जानता है कि पाकिस्तानी आतंकवाद वहाँ की सरकार के परिश्रय में है और उसे दोस्त करार करके चीन आतंकी गतिविधियों से खुद को बचाये रख सकता है। उसका ताज़ा वीटो इसका एक अच्छा प्रमाण है।

भारतीस राजनीतिक मानसिकता दो खेमों में बँटी नज़र आती है । एक रूसी और दूसरी अमरीकी। इस तथ्य को समझने के लिये हमें इतिहास के पन्ने पलटने पड़ेंगे। 1947 में जब देश आज़ाद हुआ था तब इसके तीव्र विकास के लिये औद्योगिक और श्रमजनक ढाँचे की आवश्यकता समझी गयी। अंग्रेज़ों से मदद लेने का प्रश्न स्वाभाविक तौर पर नहीं था और अमरीका से मदद लेने की शर्त यह थी कि भारत को नाटो का सदस्य बनना पड़ता, जो गुटनिर्पेक्षता के उसके सिद्धान्त के विपरीत होता। ऐसे में दूसरा सक्षम देश उस समय रूस था और उसकी अमरीका जैसी कोई शर्त भी नहीं थी।

कयोंकि उस समय काँग्रेस की सरकार थी अतः रूस को अपने विकास में भागीदार बनाने का निर्णय भी उसी का था। यों काँग्रेस को रूस का हिमायती माना जाने लगा। यह हमारे देश की राजनीतिक विडंबना ही कहलाएगी कि यहाँ विपक्ष विरोध करना ही अपना दायित्व मानता है, चाहे वो अप्रासंगिक ही क्यों न हो।कम्यूनिस्टों को तो रूस की भागीदारी से कोई ऐतराज़ होना ही नहीं था। उस समय की दूसरी वरचस्व वाली पार्टी जन संघ थी, जो आगे चल कर भारतीय जनता पार्टी हुई, अतः उनका रुझान अमरीका की तरफ होना  स्वाभाविक ही था।  इस पार्टी के लिये यह भी कहा जाता है कि यह पूर्ण आज़ादी के लिये तैयार भी नहीं थी और डोमिनियन स्टैटस की पक्षधर थी, जैसे कनाडा, अॉस्ट्रेलिया या न्यूज़ीलैण्ड। शायद इसीलिये इस पार्टी के नेताओं ने भारत छोड़ो आंदोलन और पूर्ण स्वराज की मांग का विरोध भी किया था।

आज स्थितियाँ पहले से बहुत बदल चुकी हैं । आज विश्व ताकतों में चीन का नाम ऊपर आ गया है, रूस की ताकत उसके सदस्य देशों के अलग होने से कमज़ोर हुई है, विश्व इस्लामी आतंकवाद से त्रस्त है, जिस त्रासदी का श्रेय कहीं न कहीं अमरीका और रूस के बीच वैश्विक वरचस्व की होड़ को जाता है। विश्व नें आज सैन्य बल से कहीं ज़्यादा व्यापार और संचार की पकड़ हो चुकी है । भारत भी एक उभरती हुई आर्थिक एवं सैन्य शक्ति है जिस पर पहले से मौजूद वैश्विक शक्तियाँ की नज़र बनी हुई है और उनकी कोशिश रहेगी कि या तो भारत उनके साथ खड़ा दिखाई दे या उसके व्यापार और सैन्य उद्योग पर उनकि पकड़ रहे।
पाकिस्तान या उत्तरी कोरिया जैसे देश, जो व्यापार , संचार और बाज़ार की होड़ नें कहीं नहीं आते, उनके पास आतंक ही एक ऐसा माध्यम बचता है जिससे उन्हे कुछ अहमियत, कुछ वर्चस्व हासिल हो सकता है। अंग्रेज़ी में इसे न्यूसेंस वैल्यू कहते हैं। बहुत कुछ मोहल्ले के गुण्डे जैसा।

समस्या गुण्डों से निपटने की होती तो कुछ खास न था। समस्या प्रतिष्ठित शक्तियों के इनके इस्तेमाल से पैदा होती है, जैसे अमरीका के लिये पाकिस्तान, चीन के लिये उत्तरी कोरिया, या रूस के लिये सीरिया आदि। भारत को अपनी नाव ऐसे ही समस्या से भरे समुद्र में बड़ी सूझ बूझ से खेनी है। गुट निर्पेक्षता का हमारा सिद्धान्त ही अब तक हमारी पहचान को बनाये हुए है, वर्ना हम भी या तो अमरीकी गुट वाले, जैसे जर्मनी, इंगलैण्ड, जापान या रूसी गुट वाले देश की पहचान वाले होते। अब जब कि दुनिया की तीसरी बड़ी आर्थिक ताकत के रूप में हमारा देश उभर रहा है, इन प्रतिष्ठित शक्तियों के खेल को बखूबी समझते हुए हमें अपने फायदे के रास्ते बनाने हैं।

आशा करते हैं कि हमारी राजनीतिक इच्छाशक्ति और नेत्रित्व की क्षमता इस काम के लिये पूर्णरूप से उपयुक्त है।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

2 thoughts on “वैश्विक परिस्थितियाँ और हम

  • बहुत अच्छा लेख .

    • मनोज पाण्डेय 'होश'

      धन्यवाद भामरा जी। अपनी किताब छपवा रहे हैं न !

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