गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल – हया

हया आंखो में अब बहुत मुश्किल से मिलती है
बेशर्मी आजकल तो यहाँ नाजों से पलती है ।

बयां कर दूँ अगर सचाई तो कड़वी बहुत होगी
शर्म का छोड़कर गहना बिना चूनर के चलती है।

नुमाइश जिस्म की करना कहां की ये शराफत है
हर शय दायरे में हो तभी तक सुन्दर लगती है ।

हार बैठा दुशासन नौ गज तन से खींचकर साड़ी
मगर अब आजकल कपडों मे कितनी देर लगती है ।

आज़ादी का नहीँ मतलब शर्म अपनी गवां बैठें
कटारी तेज हो कितनी म्यान में अच्छी लगती है।

मुझे कमज़ोर समझे तो समझने दीजिए “जानिब”
लाज से हों झुकीं पलकें तो औरत नारी लगती है।

पावनी दीक्षित “जानिब”

*पावनी दीक्षित 'जानिब'

नाम = पिंकी दीक्षित (पावनी जानिब ) कार्य = लेखन जिला =सीतापुर