हास्य व्यंग्य

व्यंग्य : मछीकी और मास्क

लाॅक डाउन के चलते सूनी सड़कें, सूनी गलियां आजकल एक आम बात हो गई । कहाँ तो आवारा जानवरों को दिन-रात चलने-फिरने ,उठने-बैठने में बहुत ही परेशानी का सामना करना पड़ता था । पर अब बिना रोक-टोक अपने कार्यों को अंजाम दे रहे हैं पर कुछ समझ नहीं आ रहा उन्हें कि ये क्या माजरा है ? विद्वान-जनों  व शास्त्रों से सुनते आ रहे थे कि ईश्वर ने सभी प्राणियों से अलग, मनुष्य को हँसने की कला दी है और ऐसा पाया भी मैंने ही क्या शायद किसी ने जानवरों को हँसते हुए देखा हो ।
             मुझे आज भी याद है कि माँ व पिताजी हमारे पालतू भैंस के छोटे पडरेट (पाडा-पडिया)व कई बार बैल के मछीकी लगाते थे जिससे वो असमय दूध ना पी जाये (चुखा ना जाये), या फिर मिट्टी खाने की आदत से छुटकारा दिलाने के लिए भी ऐसा करते थे । इसी प्रकार कई बैंलों को स्वयं का पैशाब पीने की गलत आदत के कारण इस दशा से गुजरना पड़ता था ।
       आज अचानक रात के बारह बजे मेरी नींद खुल गई घर के बाहर कुछ अजीब सी हँसने की आवाज आ रही थी मैं थोड़ी देर तो अंदाजा लगाता रहा और सोचता रहा कि आखिर इस समय कौन हैं जो हँस-हँस कर बातें कर रहे हैं  आखिर मैंने मुँह के मास्क लगा बाहर आया और गेट का ताला खोला सड़क के दोनों ओर देखा पर कोई दिखाई नहीं दिया । हाँ, पांच-दस गायें जरूर कुछ दूरी पर बैठी हुई थी पर मैंने उन पर ध्यान नहीं दिया । मैं जैसे ही गेट लगाने लगा कि फिर पूर्ववत एक विचित्र सी हँसी के स्वर फिर सुनाई दिए मैंने फिर बाहर देखा इंसान कोई नहीं था सभी गायें जगी हुई थी वो मुझे अजीब अंदाज़ में देखने लगी । सच, उनका ऐसा अंदाज़ पहले कभी दिखाई नहीं दिया था । वे सभी कभी मुझे देखती कभी आपस में एक दूसरे को ।
         उन सभी के चेहरों पर उपेक्षा, हँसी, सहानुभूति, विस्मय के मिश्रित भाव दिखाई दे रहे थे । पर मैंने समझते हुए भी उन्हें नजर अंदाज करते हुए ताला लगाकर कमरे में आ गया। हँसी से सनी आवाज अब भी आ रही थी । मेरी नींद अब कोसों दूर जा चुकी थी फिर मैंने कमरे की बड़ी लाइट जलाई और कलम कागज लेकर बैठ गया । मेरी आँखों के आगे उन जानवरों के भाव अब भी बार-बार आ रहे थे जैसे वो कह रहे हो हे मनुष्य ! जो तू आज तक अपने को परमात्मा की अनमोल कृति कहता रहा है और इस भाव के कारण तू ने संपूर्ण धरा पर अपना एकाधिकार जमा रखा है । तेरा ये पेट कितना बड़ा हो गया कि तूने सभी प्राकृतिक संसाधनों को भी अपनी बपोती समझ लिया अन्य प्राणी तेरी मर्जी के अलावा जीवन जीने का अधिकार जैसे खो ही बैठे थे पर ये आज तेरी अचानक इस दशा को देखकर हम कुछ समझ नहीं पा रहे । आज जब तेरे मुँह पर मास्क देखा तो हमें हमारी मछीकी की याद आ गई । बंद घरों में तूझे कैद देख कर उन पशु-पक्षियों की अवस्था जैसा लगता है जिन्हें तू अपने मनोरंजन हेतु कैद रखा करता था ।
        पर तेरी इस अवस्था से तुझ पर क्या प्रभाव पड़ेगा ये तो हम नहीं जानते पर हाँ हम पशु-पक्षी तो चैन की साँस लेने लगे हैं हवा बहुत कुछ शुद्ध हो गयी गंदगी भी कम हुई है साथ ही जल प्रदूषण में भी कमी आई है । लिखते-लिखते पता ही ना चला कब सुबह हो गयी मैंने जल्दी से गेट खोला और बाहर सड़क पर देखा तो तब तक सभी गायें जा चुकी थी अपने पेट के जुगाड़ में … मैंने भी बरामदे से अखबार उठाया और कुर्सी पर बैठकर समाचार पढ़ने लगा ।
— व्यग्र पाण्डे    

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र'

विश्वम्भर पाण्डेय 'व्यग्र' कर्मचारी कालोनी, गंगापुर सिटी,स.मा. (राज.)322201