मुक्तक/दोहा

मुक्तक

सृजन है धेय जीवन का, यूँ  ज़ाया जा नहीं सकता ।
जो गुज़रा वक़्त कांटो में,वो लाया जा नहीं सकता ।।
मन:  रुपी  ये  चट्टाने, कठिन,  दुर्गम  भी  होती  हैं ।
गुलिस्ताँ सहज उन पर भी, उगाया जा नहीं सकता ।।

व्यस्त रहने वाले सभी, रास्ते पर आ रहे हैं ।
घरों पर जान तजने वाले भी  घबरा रहे हैं ।।
मिले ना जो कभी गूगल में सर्च करने पर भी ।
समस्त बैरागी आजकल फेसबुक चला रहे हैं ।।

— क्रांति पांडेय “दीपक्रांति”

One thought on “मुक्तक

  • मनोज बाथरे

    आपकी रचनाएं बहुत ही खूबसूरत है

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