ग़ज़ल !
बेरुखी ऐसी भी न हो चिलमन भी हो और तन्हाई भी मिले,
हम फूलों की चाह करें और चमन में बस यूं कांटे ही मिले।
तुम ही कह दो कैसे न शिक़वा हम करें तुम्हारी बेवफाई का,
वादा भी तोड़ो और इल्ज़ाम जुदाई का आखिर हमें ही मिले।
आईने को देख कर गुरूर इतना क्यों करने लगे तुम खुद पे,
निगाहें चुराकर निकले थे गली में आज जब तुम हमसे वहीं मिले।
इक इशारा जो कर दो तो जान भी हाज़िर है ऐ हमसफ़र,
मुद्दतों से किसी ने भी हाल न पूछा यूं तो कितने मुसाफ़िर ही मिले।
यही दस्तूर इश्क का है तो सर आंखों पर हर सितम भी दिलबर,
जुदाई ही मिलती है जो देखो तो कितने आशिक प्यार में कहीं मिले।