उपन्यास अंश

उपन्यास : उम्र (छठी कड़ी)

कुछ ही देर में अनिल मामाजी ने दरवाजे पर दस्तक दी, शंकर घर में कहीं जाने के लिए तैयार बैठा था, तो रमेश अभी अभी नहाकर निकला था, मामाजी ने कंघी करते रमेश से पूछा ‘अरे… रमेश आज शहर जाते हुए, कुछ सब्जियां लेते जाना, मैं बगीचे से ले आया हूँ, ‘हाथ में थैला लिए मामाजी ने मुस्कराते हुए रमेश से कहा, ‘रमेश ने उनकी इस बात पर मुस्कराते हुए कहा,’अरे वाह मामाजी चलिए अच्छा किया अब मम्मी भी गाँव की ताज़ी ताज़ी सब्जी पाकर खुश हो जाएगी, ‘हाँ भाई बिलकुल होगी,,’ ऐसा कहकर मामाजी हंस दिए और, नहाने को चल दिए! मामी जी ने लगभग खाना तैयार कर दिया था, शंकर तैयार हुआ सामने के कमरे में बैठा था, तैयार होकर रमेश उसके पास जाकर बैठ गया, शंकर ने मुस्कराते हुए कहा,’तो भैया आज जा रहे हैं?’

‘हाँ भाई..” रमेश ने लम्बी सांस लेते हुए कहा, ‘भैया फिर कब आयेंगे?.दिल्ली जाकर हमारे गाँव को और हमको भूल तो ना जायेंगे ना?’,शंकर ने जैसे बड़ी मासूमियत से पुछा था.’रमेश ने भी मुस्कराते हुए कहा,’अरे नहीं भाई … और जोरकर दोनों हंस दिए, तभी मामी जी की आवाज चौके से आई,’अरे रमेश भैया,,,शंकर,, आ जाओ खाना खा लो…’ और दोनों फिर भोजन के लिए अन्दर चल दिए, रमेश और शंकर ने साथ बैठकर ही भोजन किया, अमूनन सुबह सुबह रमेश इतने जल्दी भोजन नही करता था, किन्तु गाँव के परिवेश में ढलना और उस समय को बांधकर चलना ही उसे ठीक समझ आ रहा था, दोनों ने भोजन किया और फिर सामने के कमरे में आ गये, मामाजी तब तक नहाधोकर आ चुके थे, रमेश ने मामाजी से जैसे प्रश्न किया.’यहाँ से शहर के लिए कितने बजे बस मिल जाएगी मामाजी?’

मामाजी रमेश की तरफ मुड़े और कहा, ’कुछ ११ बजे की बस मिल जायेगी, तुम्हे चौक तक छोड़ेगी यहाँ से बैठोगे तो!!’ मामाजी ने गंभीरता से समझायाऐसा नहीं था कि रमेश कोई पहली बार गाँव आया था, उसे पता था की बस ११ बजे यहाँ से शहर के लिए जाती है, किन्तु उसने केवल मामाजी से सौहाद्रता में ये प्रश्न पूछ लिया था, ताकि उन्हें ऐसा ना लगे कि रमेश रात की बातों से उनसे खफा या नाराज है, रमेश ने झट से कहा,’चलिए फिर मैं निकलने की तैयारी करता हूँ, और रमेश बीच के कमरे में तैयार होने चल दिया, इधर बाहर शंकर ने सब्जी से भरा थैला रस्सी से कसकर बाँध दिया, उधर रमेश ने अपने कुछ थोड़े जो कपडे वो शहर से लाया था, अपने बैग में भरे जिसमे माँ का कल का दिया हुआ डब्बा बिलकुल भरा रखा था, कहना बासा हो चूका था, उसने निकालने की जेहमत नहीं की बल्कि उसे और दबाकर रख दिया, उसे बिल्कुल होश ना रहा था कि माँ ने भी घर से खाना भेजा था, खैर जैसे तैसे उसने अपना सारा बैग पैक किया और जूते पहनने के लिए सामने वाले कमरे में आ गया, बैग उतारकर उसने एक कुर्सी पर रख दिया, जिसपर एक मटमैला सा कपडा रखा हुआ था, उसने इसपर ध्यान नही दिया, उसने देखा कि आँगन में थैला लिए शंकर खड़ा है और वो उसकी तरफ देखकर मुस्करा रहा है, उसकी मुस्कराहट में निष्पाप और बालक का सा स्वभाव झलकता था, रमेश का मन होता कि उसे गले लगा ले लेकिन कोई सीमा थी, कोई मानसिक बंधन था जो उसे ऐसा करने से रोकते थे, रमेश तैयार हो चुका था… और इधर मामी जी और मामाजी चौके में बैठे कुछ बातें कर रहे थे, अनिल मामाजी शायद भोजन कर रहे थे!

कुछ ही देर में मामाजी बाहर निकलकर आये और अपने कुरते की जेब से रुमाल निकालकर हाथ पोछते मुस्कराते हुए बोले,’हो गयी बेटा सब तैयारी’ रमेश ने मुस्करा कर उन्हें देखते हुए कहा,’हाँ मामाजी…तैयारी हो गयी है…चलिए अब निकलता हूँ ‘ अन्दर से मामी जी की आवाज आयी,’अरे रुकिए भैया,…’ और वे आकर रमेश के पास खड़ी हो गयी, उन्होंने रमेश की तरफ देखकर मुस्कराया और बोली,’दिल्ली जाइएगा तो भूलियेगा नहीं रमेश बाबू, बड़े आदमी बनकर ही लौटियेगा अब तो…फिर आपके लिए लड़की भी तो खोजनी पड़ेगी…’इतना कहकर वे जोर से हंस दी, उनके साथ मामाजी भी हंस पड़े और रमेश ने भी हँसते हुए हाथ जोड़कर कहा,’बस मामी जी अब निकलता हूँ…’ चलिए ठीक है बेटा…’मंजी कुछ गंभीरता से बोले और मुस्करा से दिए, शंकर जो की आँगन में खड़ा था मुस्काया और बोला,’चलिए आपको सड़क तक छोड़ आते हैं, और ये थैला भी बस में खवा देते हैं,..

रमेश ने कुछ नही कहा बस मुस्कराता सा आगे बढ़ गया और एक बार पीछे मुड़कर मामाजी की तरफ देख हाथ हिलाया और फिर सीधा चल दिया, उसे जैसे पहले से पता था कि शंकर साथ ही में आएगा, दोनों चलते रहे रमेश आगे तो तिला लिए शंकर पीछे और उन्होंने बस्ती पार की और सड़क के किनारे पहुच गए, कुछ ही देर में बस आई और शंकर ने हाथ हिलाकर बस को रोका, और रमेश भैया को बस में चढ़ाया और खुद भी थैला लेकर पीछे चढ़ गया,’अरे लाओ लाओ मुझे देदो…मैं रख लूँगा रमेश जोरकर शंकर से बोला, बस थोड़ी देर रुकी थी अन्दर ज्यादा यात्री नहीं थे, शंकर ने फिर थैला सीट के नीचे रख दिया और हँसते हुए रमेश के पैर छुए और रमेश ने मुस्कराकर उसे विदा कहा शंकर बस से उतर गया और बस चल पड़ी, काफी देर खिड़की से रमेश शंकर को देखता रहा!!

शंकर एकटक निगाहों से बस को जाते हुए देख रहा था और शंकर खिड़की से उसे, शंकर की आँखों में शायद कोई सपना था जो लगभग छिप सा गया था, मानो शायद इसी तरह रोज बस शहर की तरफ तो जाती थी मगर किसी तरह उसके सपनो को उसके साथ बैठकर नहीं ले जाती थी, शंकर को देखते देखते मानो रमेश को लगा कि शायद शंकर में मन में ये बात थी कि वो उसके साथ शहर आना चाहता था लेकिन कोई कारण था जिसकी वजह से वो बोल भी नहीं पाया, जीवन कितनी अनंत अपरोक्ष अनुभूतियों से घिरा हुआ है, जैसे कोई जिम्मेदारी जब हमे बाँध सी लेती है तो हम वो नहीं कर पाते जो मन चाहता है, उस समय अपनी जिम्मेदारियों का निर्वाह हमारा मूल उद्देश्य बन जाता है, इन उद्देश्यों की पूर्ती में कई बार बस सपने ही उम्र के साथ उम्रदराज से हो जाते हैं हम कुछ बोल नहीं पाते बस आँखों से पल को अपने हाथ से निकलते देखते ही रह जाते हैं, इन्ही बातों को सोचता हुआ रमेश बस में बैठा बैठा मानो ऊँघने सा लगा था, उसे याद था कि डॉक्टर अनुपम की क्लिनिक में उसे उतरना है जो की शहर से ही कुछ एक घंटे की दूरी पर थी, रमेश गाँव और शंकर को काफी पीछे छोड़ आया था और अब उसे केवल एक ही बात याद थी कि डॉक्टर अनुपम से पिताजी की दवाई लिखवानी थी!!

एकाएक बस आकर एक चौराहे पर रुकी, कंडक्टर ने रमेश को आवाज दी ,’बाबू यहीं उतरेंगे क्या?’ रमेश जैसे ख़ामोशी की निद्रा से जागा और बोला.’हाँ भाई यहीं उतरना है यहाँ तक का कितना हुआ?’, कंडक्टर ने कहा ८० रूपए दे दीजिये,’ इसबार रमेश ने कोई बहस ना की और चुपचाप एक १०० का नोट कंडक्टर को दे दिया,उसने २० रुपये रमेश को वापस किये और अपना थैला और बस दोनों उठाकर रमेश बस से उतर गया, बस आगे चल दी, काफी बड़ा बाज़ार जैसा लगा था, मानो रमेश किसी मेले में उतर आया हो, ये घनेरी मगर एक साफ़ सुथरी बस्ती थी, कुछ ऊँची बिल्डिंग्स थीं और अआस्पास ढेरों डॉक्टर्स के बोर्ड लगे हुए थे, डॉ. अनुपम सिन्हा का क्लिनिक उन्ही बिल्डिंग्स के बीच में बिलकुल सकरे से इलाके में था, वहां गन्दगी नहीं थी मगर मरीजों की लम्बी लाइन लगी थी, कोई हाथ तुड़वाकर आया था कोई घुटने के दर्द के लिए आया था, सबके अपने अपने रोग थे, और अपनी अपनी विकट समस्याएं!

जब रमेश वहां पहुंचा तो भीड़ देखकर थोडा चकराया लेकिन उसे पता था की डॉ.अनुपम एक बड़े डॉक्टर हैं वे हर किसी की समस्या को सुलझाये बिना कुर्सी से नहीं उठते, रमेश दो तीन बार पिताजी के साथ यहाँ आया था, डॉ. अनुपम पिताजी को काफी समय से जानते थे इसीलिए रमेश को भी पहचानने लगे थे, बाहर क्लिनिक के सामने कुछ दुकानें थीं और सामने एक बेंच राखी हुयी थी जो की मरीजों से खचाखच भरी हुयी थी, वही एक दीवार का टूटा सा कोना था जहाँ बैठने के लिए पर्याप्त जगह थी, रमेश ने अपना थैला उतारा और बैग को पीठ पर लटकाए ही वहां बैठ गया!

कुछ देर बार क्लिनिक का एक आदमी आया और रमेश से पूछा,’आपका कोई अपॉइंटमेंट है?’ वो गर्राते हुए बोला, ‘नहीं, मैं अपने पिताजी के लिए दवाई लिखवाने आया हूँ,’रमेश ने सहजता से समझाया,’ अच्छा कोई फोन किया था क्लिनिक में पहले.’उसने अब शांत स्वर में पूछा ,’नहीं कोई कॉल नहीं किया था,’रमेश ने सहजता से उत्तर दिया,’अच्छा तो लाओ ३०० रूपए फीस,’वो क्लर्क एक रजिस्टर निकालते हुए बोला, रमेश ने कहा देखिये भाई साहब जो भी देना है मैं डॉक्टर साहब को दूंगा, मैं अपना इलाज नहीं पिताजी की दवाइयां लिखवाने आया हूँ ’रमेश ने समझाते हुए उसे कहा, ‘अरेयार क्यों बहस करते हो डॉक्टर साहब से मिलने की फीस ३०० रुपैया ही है भैया, ‘क्लर्क थोडा खीझता हुआ बोला, ‘अरे…लेकिन….’रमेश कुछ कहता तभी वो क्लर्क उसे रोकता हुआ गुर्राकर बोला,’अरेयार क्यों बहस करते हो?’,’रमेश भी खीझ गया और बोला मैं पैसे नहीं दूंगा, सिर्फ दवाई लिखने के ३०० रुपये ये कहाँ का रेट है तुम्हारे डॉक्टर का,

तुम क्या नए आये हो मुझे जानते नहीं हो?, लगता है डॉक्टर साहब से शिकायत करनी पड़ेगी तुम्हारी,’रमेश ने झल्लाकर गुस्से में काफी कुछ बोल दिया, हंगामा सा हो गया, क्लर्क की सिट्टी पिट्टी गुल हो गयी, ‘अरे बाबू साहब इतना गुस्सा मत कीजिये,’अब वो थोडा ठंडे स्वर में बोला, माहौल काफी गरम हो चूका था, आसपास के लोग रमेश को घूर रहे थे, इसे देखकर रमेश भी शांत बैठ गया और वो क्लर्क आगे बढ़ गया, थोड़ी देर बाद रमेश का गुस्सा कुछ शांत हुआ और लम्बी लाइन थोड़ी कम हुयी तो वो भी लाइन पर खड़ा हो गया, इस बार क्लर्क वापस लौटकर आया तो उसने रमेश से नजरें मिलायीं और धीमे स्वर में रजिस्टर खोलकर पेन से लिखता हुआ बोला,’अच्छा नाम बताइए भैया?’, रमेश श्रीवास्तव,’रमेश ने भी शांत स्वर में कहा,’अच्छा तो आप पिताजी की दवाई लिखवाने आये हैं?’ क्लर्क ने बड़ा सीधा बनते हुए कहा,’जी हाँ….’ रमेश ने उत्तर दिया, फिर क्लर्क अन्दर चला गया!

रमेश ने देखा जिस लाइन पर वो खड़ा था उसके पीछे आकर काफी लोग खड़े हो गये थे, एक लम्बी कतार तो उसके पीछे ही बन गयी, थी डॉक्टर साहब इलाके के फेमस डॉक्टर थे, रमेश इस बात को जानता था, धीरे धीरेउसके सामने के मरीज घटते जा रहे थे, और एक हाथ के मरीज के बाद रमेश का ही नंबर था, डॉक्टर साहब स्पष्ट दिख रहे थे, उनके सामने ढेरों फाइल्स पड़ी थीं. उन्होंने चश्मा लगाया हुआ था और एक बड़ी सी ऑफिस की कुर्सी पर टेबल में हाथ रखे सामने वाले मरीज की बात सुन रहे थे, मरीज की बात ख़त्म हुयी उन्होंने अपना पैड निकाला उसमे दवाई लिखी और पन्ना फाड़कर मरीज को पकड़ा दिया, वो नमस्कार करते हुए, दुसरे गेट से बाहर निकल गया, इसके बाद रमेश के सामने वाले मरीज की बारी आयी, डॉक्टर साहब ने उसका हाथ चेक किया, फिर उसपर प्लास्टर चढ़ाया और फिर उसी कुर्सी पर बैठ गए पैड निकाला, मरीज को समझाया और नमस्ते कहते हुए उसे विदा किया!

अब रमेश की बारी थी उसकी तरफ देखकर डॉक्टर साहब जैसे मुस्कराए, उन्हें देखकर रमेश थोडा मुस्कराया और टेबल के सामने रखी कुर्सी को पीछे सरकाकर उसमे बैठ गया, ‘कहिये जनाब कैसे हैं आप?’,डॉक्टर साब ने दोस्ताना अंदाज़ में पूछा, ‘मैं तो ठीक हूँ सर लेकिन पापा के घुटनों के दर्द का अभी तक इलाज नहीं मिला है, आपकी दवाई से उन्हें पिछली बार फायदा था, लेकिन अब वो दावा खत्म हो गयी है, और आपकी लिखी हुयी पर्ची भी कहीं खो गयी है,’रमेश ने जैसे सारी समस्या. अनुपम जी के सामने रख डाली, ‘अच्छा कोई बात नहीं मैं फिर से लिख देता हूँ, आप फिर ये दवाई ले लेना, इसबार भी उन्हें आराम लग जायेगा, चिंता मत कीजिये, डॉक्टर साहब मुस्कराए, और पैड निकालकर उसमे दवाइयां लिखते हुए उन्होंने पूछा और आपका क्या चल रहा है,’मैं दिल्ली जा रहा हूँ सर, आई ए एस की तैयारी करने!!’ रमेश ने पूरे विश्वास के साथ कहा.

’ अरे वाह ये तो बहुत अच्छी बात है भाई, आप जल्द सफल हों मैं आशा करता हूँ, वैसे आपकी उम्र कितनी हो गयी है,’डॉक्टर साहब ने जैसे रमेश के जख्म को कुरेद दिया, ‘जी ३० साल’, रमेश ने झेंपते हुए ही कहा, डॉक्टर साहब दवाई लिख चुके थे और चिट्ठी रमेश को थमाते हुए बोले, ‘सपने देखने में कोई बुराई नहीं है, जीवन संघर्ष का नाम है, आप जल्द सफल हों मैं आशा करता हूँ, ‘इस बात पर रमेश जैसे मुस्कराया और उठ खड़ा हुआ और डॉक्टर साहब को नमस्ते करता हुआ क्लिनिक के बाहर आ गया, क्लिनिक के बाहर ही दवाई की दूकान थी, वहां उसने चिट्ठी दिखाई और दवाएं लेकर फिर चौराहे के तरफ बढ़ गया!

पैदल चलते हुए रमेश हाथ में थैला लिए और पीठ पर बैग लटकाए आगे बढ़ रहा था उसे बार बार याद आ रहा था कि डॉक्टर साहब ने क्या कटाक्ष किया था, कोई व्यंग्य झाडा था या सच में उन्होंने सांत्वना दी या वे स्वयं एक प्रखर सोच रखने वाले इंसान हैं, ‘सपने देखने में कोई बुराई नहीं है’ यही बात रमेश के दिमाग में लगातार घूम रही थी और जैसे उसे इससे कोई सहारा मिल रहा था, अपरोक्ष रूप से जैसे वो खुश था कि किसी ने पहली बार उसका जैसे समर्थन किया था! ऐसा सोचता हुआ रमेश चौक पर पहुंचा वहां बस पहले से ही आकर खड़ी थी, रमेश उसमे चढ़ गया और शहर की तरफ निकल गया!!

जारी रहेगा…

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

2 thoughts on “उपन्यास : उम्र (छठी कड़ी)

  • editing के लिए धन्यवाद्, मैं नेटवर्क ना होने के कारण एडिटिंग और सुधार कार्य नहीं कर पा रहा हूँ!!

    • विजय कुमार सिंघल

      कोई बात नहीं, जब कोई अशुद्धि खटकती है, तो तत्काल सही कर देता हूँ. जब आपका नेटवर्क सही काम करने लगे तब आप देख लेना.

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