गीतिका/ग़ज़ल

गज़ल

तुम्हारे ध्यान की खुशबू से मेरा मन महकता है.

मेरी सांसें महकती हैं, मेरा जीवन महकता है.

 

महकती रूह कहती है कि उसका तन महकता है.

जिसे तुमने छुआ माटी का वो बर्तन महकता है.

 

भटकती बस्तियां देखीं, महकते लोग देखे हैं.

कभी साया  महकता है कभी दर्पन महकता है.

 

संभाल जाना बुढ़ापा है बहक जाना जवानी है.

पचासों वर्ष पहले का मेरा बचपन  महकता है.

 

बिखर जाति है खुशबू फूल खिल जाते हैं शाखों पर.

महक से ‘शान्त’ जिसकी मेरा घर-आँगन  महकता है.

 

देवकी नंदन 'शान्त'

अवकाश प्राप्त मुख्य अभियंता, बिजली बोर्ड, उत्तर प्रदेश. प्रकाशित कृतियाँ - तलाश (ग़ज़ल संग्रह), तलाश जारी है (ग़ज़ल संग्रह). निवासी- लखनऊ

2 thoughts on “गज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह ! वाह !! बहुत खूब शान्त जी. इतनी खूबसूरत गजल आपकी लेखनी से ही निकल सकती है !

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