कविता

आखिर कैसी दीवाली है…

मन में पीड़ा, रुधिर शीत है, निर्धन के घर कंगाली है।
एक तरफ खरबों के मालिक, एक तरफ ये घर खाली है।
लोग रौंदकर किसी के दिल को, यहाँ जलाते आतिशबाज़ी,
अंधियारे से घिरे करोड़ों, आखिर कैसी दीवाली है।

लोग बहुत ही निर्ममता से, क़त्ल प्यार का कर देते हैं।
कभी किसी मासूम का जीवन, चीख-आह से भर देते हैं।
इतना करके भी जब उनको, चैन, ख़ुशी, उल्लास नहीं हो,
तब वो देखो रूह तलक का, सौदा पल में कर देते हैं।

दीवारों की मिट्टी उखड़ी, आँगन में भी बदहाली है।
अंधियारे से घिरे करोड़ों, आखिर कैसी दीवाली है…

फटी हथेली, टूटी रेखा, आँखों में भी सूनापन है।
कल भी खंडहर बने हुए थे, आज भी पतझड़ सा जीवन है।
“देव” वो उनकी लाश तलक को भी चंदन से फूंका जाये,
उसे मयस्सर कफ़न तक नहीं, क्यूंकि वो निर्धन का तन है।

चाँद सरीखा रूप है जिनका, भीतर से नियत काली है।
अंधियारे से घिरे करोड़ों, आखिर कैसी दीवाली है। ”

One thought on “आखिर कैसी दीवाली है…

  • विजय कुमार सिंघल

    शानदार गीत, चेतन जी. आपने हम सबकी भावनाओं को सुन्दरता से प्रकट किया है.

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