कविता

प्रज्ज्वलित दीप

 

एक प्रज्ज्वलित दीप
क्या क्या ना करता
अंधकार दूर करने
के अलावा
स्मृति में बसी
धुंधली यादों को
पीली रोशनी की
चमक देता
जिसे हम
हम बार बार
मन के दर्पण में
पढ पाते हैं–
तीन -चार वर्ष बीत गए
नजर नही आई वो
मासूम बच्ची
जो दीपावली से पहले
माथे पर
दियों से भरी
बड़ी सी टोकरी ले कर
सुबह सुबह
गली गली
आवाज लगाती फिरती थी
दिया है………।
ले लो दिया………॥
पर कौन सुने!
सुविधाओं के आदी हुए
लोगों के पास वक्त भी कहां
कि दिये को पानी में
डुबाए –सुखाए,
तेल –बाती की झंझट

अब कौन करे

रंग बिरंंगी कंदीलों
और झालरों के बीच
दिये की फीकी पड़ती लौ
से टूट चुकी थी
उसकी आस
उस शाम लड़खड़ाते कदमों से
जब वह लौट रही थी
घर की जानिब
नही दिखी थी
उसकी क्लांत आंखों में
दिवाली की खुशी
बाजार पर विदेशी वस्तुओं
की धाक ने
पहले ही लील लिया है
हमारी परंपराओं
हमारे उत्सवों की खुशी को
तो क्या अब जिंदगी भी?
दीपशिखा सी कंकपाती
दर्द भरी वो आवाज
आज जब भी गूँजती है
कानों में
मेरे पास एक
ठंडी सांस लेने भर के सिवा
कुछ और नहीं रह जाता !!!!!!

***भावना सिन्हा ****!!

डॉ. भावना सिन्हा

जन्म तिथि----19 जुलाई शिक्षा---पी एच डी अर्थशास्त्र

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