दहेज दानव ….
बाप का घर-बार तक बिकता है
तब कहीं जाकर बेटी का घर बसता है !!
हमारे इस दोगले सभ्य समाज में
बेटी का बाप कदम कदम पर पिसता है !!
खुद के नसीब में साईकिल तक नहीं
पर बेटी को बढ़िया गाड़ी में विदाई देता है !!
ब्याज चुका चुकाकर तोड़ देता है दम
मूल पीढ़ियों तक सर पर धरा रह जाता है !!
कलेजे के टुकड़े का कोई मोल कहाँ
बस सोने-चाँदी का वजन ही मान बढ़ाता है !!
प्रवीन मलिक …..
परवीन जी , कविता किया है , भारती समाज के मुंह पर तमाचा है , लोग बातें करते हैं , बेटी बचाओ , माँ के गर्भ में कतल ना करो . ऐसी बातें तो बहुत करते हैं लेकिन जब बेटे की शादी होती है तो मुंह इतना खुला होता है जैसे बेटी के घर वाले भी दहेज़ के साथ भीतर घुस जाएं . मैं बार बार लिखता रहूँगा कि १९६७ में मैंने अपनी शादी बगैर दाज दहेज़ के दस ब्रातिओं के साथ की थी और हमारा परिवार पर्फुलत है , सभी बच्चे नेक हैं , मैं सुखी हूँ . आज २०१४ आ गिया लेकिन भारत वासिओं की सोच नहीं बदली .
अच्छी कविता.