उपन्यास अंश

यशोदानन्दन -१

“क्या कहा आपने? कृष्ण मेरा पुत्र नहीं है? यह कैसे हो सकता है? मुझे स्मरण नहीं कि आपने कभी मिथ्यावाचन किया हो। फिर यह असत्य संभाषण क्यों? कही आप मेरे साथ हंसी तो नहीं कर रहे हैं? लेकिन यह विनोद का समय नहीं। बताइये वह कहाँ है? उसे कहाँ छोड़ आए आप? वह कुशल से है तो …………….?” विकल यशोदा ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी।

“हाँ, वह मथुरा में कुशल पूर्वक है। तुम मेरी जिस बात पर विश्वास नहीं कर रही हो, वह सत्य है। इस समय वह अपने माता-पिता के साथ मथुरा में ही है।” नन्द जी ने भर्राये गले से अत्यन्त अल्प शब्दों में यशोदा के प्रश्नों के उत्तर दिए।

मथुरा प्रस्थान करने के पूर्व नन्द जी को ही यह तथ्य कहाँ ज्ञात था कि वे श्रीकृष्ण के जनक नहीं हैं। कितना क्रूर परिहास था यह! लेकिन नहीं, यही सत्य था। सत्य का सामना करना भी कभी-कभी कितना पीड़ादायक होता है। वसुदेव उनके घनिष्टतम मित्र थे और हैं भी। देवकी से उनके विवाह के शुभ अवसर पर वे वसुदेव के विशिष्ट अतिथि थे। कितनी प्रसन्नता हुई थी उस दिन वसुदेव-देवकी को पति-पत्नी के रूप में देखकर। लेकिन आज उसी वसुदेव-देवकी के भाग्य से उन्हें ईर्ष्या हो रही थी। कलेजा टूक-टूक हुआ जा रहा था। नेत्रों में प्रयत्नपूर्वक रोकी गई अगाध जलराशि ने कहना मानने से इंकार कर दिया था। स्वर भी कहाँ साथ दे रहा था। अश्रुपूरित नेत्रों और रूंधे गले से यशोदा की ओर दृष्टि उठाने का भी साहस नहीं संजो पा रहे थे नन्द जी। दोनों पैरों में अकस्मात कंपन हुआ और नन्द बाबा कटे वृक्ष की भांति धरती पर गिर पड़े।

यशोदा की बुद्धि में कुछ समा नहीं रहा था। नन्द जी की बातें समझ से परे थीं। गोकुल से गए थे, तो पूर्ण स्वस्थ थे। आखिर वहाँ कौन सी ऐसी घटना घटी कि वे इतना म्लान मुख और तेजरहित होकर वापस लौटे? न,न, यह समय इतना सोच-विचार करने का नहीं है। यशोदा ने आगे बढ़कर उनका मस्तक अपनी गोद में ले लिया। दास-दासियों को चिकित्सक को बुलाने का आदेश दिया। नन्द जी के मुख पर शीतल जल के छींटे मारे गए, परन्तु कोई लाभ नहीं। सेवकों की सहायता से अन्तःपुर में ले आकर पर्यंक पर लेटाया गया। यशोदा के मन का पंछी पुनः कृष्ण-स्मृति के गगन में उड़ान भरने लगा —

कृष्ण रहता तो कोई न कोई उपाय अवश्य ढूंढ़ लेता। सदा क्रीड़ा में ही मगन रहता है वह। शैशवकाल से ही मुझे परेशान करने का एक भी अवसर नहीं गंवाया उसने। अवश्य ही मेरी व्यग्रता देखने के लिए पीछे रह गया होगा। आने दो। इस बार उसे क्षमा नहीं करूंगी। कान पकड़कर दो चपत अवश्य लगाऊंगी। लेकिन पहले वह आए तो। कृष्ण तो चंचल है, नित नई शरारत करता है, लेकिन बलराम? वह तो सीधी बात करता है। वह अपने पिताश्री के साथ क्यों नहीं आया? यशोदा का मन अज्ञात भय की आशंका से कांप उठा। आंखों के सम्मुख अंधेरा छाने लगा। विश्वास और दृढ़ इच्छाशक्ति के प्रतीक शूरवीर नन्द जी तो कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी स्थिरचित्त रहते हैं। वे विकल होकर गिर कैसे पड़े? अकस्मात्‌ अचेत कैसे हो गए…………? अपने किसी भी प्रश्न का उत्तर पाने में यशोदा असफल रही। उत्तर देनेवाला तो अचेत पड़ा था। नहीं संभाल पाई यशोदा स्वयं को, लाख प्रयत्न करने के बाद भी। संज्ञाशून्य हो वह भी नन्द जी के शरीर पर लुढ़क ही गई|

पूरे महल में हाहाकार मच गया। दास-दासियां, गोप-गोपियाँ, सभी अपने विवेक से युक्तियां ढूंढ़ने लगे। कोई नन्द जी को संभाल रहा था, तो कोई यशोदा को। कोई शीतल जल के छींटे मार रहा था, तो कोई सिर सहला रहा था। कोई पांव सहला रहा था, तो कोई बात करने की चेष्टा कर रहा था। कोई पंखा झल रहा था, तो कोई प्रार्थना कर रहा था। पर सारे प्रयत्न असफल सिद्ध हो रहे थे। सबके नेत्रों से अविरल अश्रु-धारा बह रही थी। मुख से कोई ध्वनि नहीं निकल रही थी परन्तु प्रियजनों के सुबकते समवेत स्वर एक उदास कोलाहल की सृष्टि अवश्य कर रहे थे। तभी कक्ष में वैद्यराज ने प्रवेश किया। सबकी जिज्ञासु दृष्टियां उनके चेहरे पर केन्द्रित हो गईं। वैद्यराज ने नाड़ी-परीक्षण किया, धड़कनों कि गति देखी और सांसों के उतार-चढ़ाव का सूक्ष्मता से निरीक्षण किया। उनके मुखमंडल पर संतोष के भाव उभरे। प्रियजनों को ढाढ़स बंधाते हुए उन्होंने कहा –

“चिन्ता का कोई विषय नहीं है। अकस्मात्‌ लगे मानसिक आघात से दोनों प्राणियों ने अपनी संज्ञा खो दी है। परन्तु ये अभी जीवित हैं। ईश्वर ने चाहा, तो अति शीघ्र इनकी चेतना वापस आ जायेगी।”

कक्ष में तिल धरने का भी स्थान शेष नहीं था। वैद्य जी ने सभी प्रियजनों को कक्ष खाली करने का निर्देश दिया। तीन-चार विश्वस्त परिचरों के अतिरिक्त सभी बाहर चले गए। अपने थैले से विभिन्न जड़ी-बूटियां निकाल वैद्य जी ने कोई लेप बनाया। नन्द जी और यशोदा जी के ललाट पर उसका लेप लगाया। एक विशेष औषधि उनकी नासिका के समीप रखी गई। इसकी सुगंध शरीर में जाते ही तनिक हलचल सी हुई। दोनों शीघ्र ही पूर्ववत्‌हो गए। दोनों के मुखमंडल पर चन्दनयुक्त जल का रुक-रुककर छिड़काव भी चल रहा था। वैद्य जी ने अपना समस्त अनुभव और ज्ञान नन्द जी और यशोदा जी के उपचार में झोंक दिया। प्रयत्न असफल नहीं रहा। नन्द जी ने नेत्र खोले। अपने समीप परिचारकों और वैद्य जी को उदास देख वे बोल पड़े –

“आपलोग इतने उदास क्यों हैं? मुझे क्या हो गया था? मुझे दिन में ही इतनी गहरी निद्रा कैसे आ गई थी?”

“आपको कुछ नहीं हुआ है। बस कुछ अज्ञात कारणों से कुछ घड़ी पूर्व आप अचेत हो गए थे। आप लेटे रहिए, कुछ ही देर में आप सामान्य हो जायेंगे।” वैद्यराज ने उत्तर दिया।

“मेरा कन्हैया कहाँ है? कहाँ है मेरा बलराम? यशोदा, तुमने उन्हें कहाँ छिपा रखा है? अरे, यशोदा भी कही दिखाई नहीं पड़ रही है। कहाँ हो यशोदा? मेरे प्रश्नों के उत्तर क्यों नहीं दे रही हो?”

उसी कक्ष में दूसरे पर्यंक पर यशोदा जी लेटी थीं। उनका भी उपचार चल रहा था, परन्तु उनकी चेतना अभी वापस नहीं आई थी। वैद्यराज ने परिचारिकाओं को एक ओर हट जाने का निर्देश देते हुए नन्द जी से कहा –

“राजन्‌! मथुरा से आने के पश्चात्‌जो पीड़ादायक संदेश नन्दरानी को सुनाया, उसके आघात से वे अचेत हो गईं। उनका भी उपचार चल रहा है। चिन्ता की कोई बात नहीं। वे भी शीघ्र ही स्वस्थ हो जाएंगी। देखिए सामने के पर्यंक पर वे विश्राम कर रही हैं।”

“नहीं, वे विश्राम नहीं कर रही हैं। वे गहरी निद्रा में भी मेरे एक मद्धिम स्वर पर जग जाती हैं। परन्तु इस समय मेरे जोर-जोर से पूछे गए प्रश्नों के उत्तर में वे मौन क्यों हैं? वैद्यराज! आप मुझसे कुछ छिपा रहे हैं। मेरी यशोदा जीवित तो है न?”

नन्द जी एक झटके से उठ बैठे। परिचारकों ने उन्हें लेटाने का प्रयत्न किया लेकिन वे लड़खड़ाते हुए खड़े होकर नन्दरानी के पर्यंक की ओर बढ़ चले। दो-तीन पग ही आगे बढ़े होंगे कि पैर पुनः लड़खड़ाए। परिचारकों ने संभाला नहीं होता तो वे धरती पर गिर गए होते। उन्हें पुनः पर्यंक पर लाया गया। बालकों की तरह विलाप कर रहे थे नन्द बाबा –

“हे श्याम सुन्दर! हे कन्हैया! लौट भी आओ मेरे प्राणाधार! देखो, तनिक देखो तो इधर; तुम्हारी माँ यशोदा तुम्हारे बिना किस दशा को प्राप्त हो गई हैं। आओ, मेरे घनश्याम आओ। क्यों विलंब कर रहे हो? वृज का कण-कण, तृण-तृण रो रहा है। तुम्हारी गौओं ने नाद से मुंह फेर लिया है। बछड़े अपनी माताओं के थन तक जाकर लौट आते हैं। चिड़ियों ने चहकना छोड़ दिया है। वृज के समस्त पुष्प कुम्हला गए हैं। कालिन्दी का बहाव स्थिर हो गया है। जड़-चेतन — सभी आँसुओं की बरसात कर रहे हैं। नहीं, नहीं, मैं नहीं संभाल पाऊंगा। गोकुलवासियों के अश्रुप्रवाह के कारण वृज में जलप्लावन न आ जाय। नहीं संभाल सकता इतनी बड़ी आपदा को अकेले। आ भी जाओ मेरे लाल! मैं किस-किस के प्रश्नों के उत्तर दूंगा? तुम्हारी उपस्थिति स्वयमेव समस्त प्रश्नों के उत्तर बन जाएगी। तुम्हारी मैया अभी अचेत है। जब वह स्वस्थ होकर मेरे सम्मुख आएगी, तो मैं उससे दृष्टि कैसे मिला पाऊंगा? हे माधव! मेरी पीड़ा क्यों नहीं समझते? आजा मेरे लाल! आजा मेरे लाल! अब और ठिठोली मत कर। मैया के साथ तो तुम जन्म से ही तरह-तरह के खेल खेलते थे। कभी छुपते थे, कभी प्रकट होते थे। कभी हंसते थे, कभी हंसाते थे, कभी रोते थे, कभी रुलाते थे। लेकिन मेरे साथ तो तुमने ऐसा खेल कभी नहीं खेला। मेरी एक पुकार पर मेरे सम्मुख खड़े हो जाया करते थे। मुझे स्मरण नहीं कि तुमने कभी भी मेरी अवज्ञा की हो। आओ मेरे लाडले! आओ मेरे श्याम! आओ मुरलीधर……………”

“वैद्य जी! नन्दरानी ने नेत्र खोल दिए। लेकिन कुछ बोल नहीं रही हैं।” एक परिचारिका ने वैद्य जी को आवाज दी।

नन्द जी को लेटे रहने का निर्देश दे वैद्य जी ने नन्दरानी का परीक्षण किया। उनके मुखमंडल पर संतोष के भाव थे। प्रियजनों को आश्वस्त करते हुए बोले —

“चिन्ता की कोई बात नहीं। नन्दरानी की चेतना लौट आई है। कुछ ही क्षणों के पश्चात्‌वे संभाषण करेंगी। इनके पर्यंक को नन्द जी के पर्यंक से सटा दिया जाय। संज्ञायुक्त होते ही ये भांति-भांति के प्रश्न पूछेंगी। इनके प्रश्नों के उत्तर कोई नहीं दे सकता, नन्द जी भी नहीं। फिर भी इन्हें सांत्वना यही दे सकते हैं। जबतक दोनों प्राणी अपनी पीड़ा एक-दूसरे से साझा नहीं करते, वे स्वस्थ नहीं होंगे। वे रोयेंगे — उन्हें रोने दिया जाय। वे बोलेंगे — उन्हें बोलने दिया जाय।”

 

 

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

2 thoughts on “यशोदानन्दन -१

  • विजय कुमार सिंघल

    उपन्यास का प्रारंभ अति उत्तम है. यह भावी घटनाओं के प्रति उत्सुकता जगाने में सफल है. आगे की कड़ियों की प्रतीक्षा है.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी है.

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