कविता

पापा

वो स्नेह तो करते हैं
जताते नहीं कभी
एक आह पर मेरी
प्राण निकलते हैं उनके
चेहरे से मगर
दर्शाते नहीं कभी
जीवन के उतार चढाव से
व्याकुल वो रहते हैं
मन की व्यथा मगर
बताते नहीं कभी
अवसाद हो कोई
या हो निराशा ही
वो पीड़ा हृदय की
सुनाते नहीं कभी
वो हैं मेरी पहचान
मेरा वजूद हैं उन्हीं से
वो पापा हैं मेरे
मुझे रुलाते नहीं कभी
मधुर परिहार

One thought on “पापा

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

Comments are closed.