कवितापद्य साहित्य

अब तो चेतो रे

रुष्ट हो रही अवनि अब तो चेतो रे
नष्ट हो रही प्रकृति अब तो चेतो रे
काटे जंगल, पेड़ पहाड़ों पर चढ़ जाते
काट शिला को उसके ऊपर घर बनवाते
मही रही अब डोल अब तो चेतो रे
मिट्टी नहीं है दिखती समतल सब घर आँगन
चमक दीवारों की ऐसी दिखते हो आनन
कहाँ गए सब लोग अब तो चेतो रे.
राम श्याम घनश्याम न गैया नहीं बांसुरी
भजन गीत की जगह शोर रह गयी बेसुरी
हर हर गंगे बोल सजन अब चेतो रे
मीठी वाणी बोल सजन अब चेतो रे!
– जवाहर २९-०४-१५

2 thoughts on “अब तो चेतो रे

  • जी आभार!

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

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