आत्मकथा

स्मृति के पंख – 10

जब सोना 20-22 रू0 तोला था, पोंड की सरकारी कीमत थी 15 रुपये। अंग्रेज लोगोें की कोठी पर चैकीदार रात को डयूटी देने वाला उसे 15 रुपये महीना तनख्वाह थी। नवरोज, जो मेरा अच्छा दोस्त था, उम्र में 5-7 साल बड़ा था। उसे महीने बाद एक पौंड मिल जाता। बाजार में 15 रुपये नकद में लेने को लोग तैयार न होते, इसलिए वो मुझे दे जाता, घर के लिए जरूरी सामान ले जाता, बाकी रुपया मेरे पास जमा हो जाता। इस तरह 300 रुपये की रकम मेरे पास जमा थी। 200 रुपये नकद देकर उसने मुझसे कहा कि गुड़ खरीदना हो, तो मेरे लिए भी 500 रुपये का खरीदना। अगर बाजार तेज हो गया तो कुछ फायदा हो जायेगा। मुझे दुकान के लिए भी खरीदना था। मरदान मण्डी में 3-4 रुपये मन मैंने 200 बोरी गुड़ खरीद लिया। बारदाना और लेबर मिलाकर 1200 की रकम बन गई। पिछले साल बाद में गुड़ का रेट 8-10 रुपये मन हो गया था। लेकिन इस साल उल्टा चक्कर चला। पंजाब की खरीद न निकली और लोकल ग्राहक इतना माल मण्डी से उठाने को तैयार न थे। बाजार और मंदा हो गया। 2 महीने बाद नवरोज से बातचीत हुई। बाजार भाव तो उसका 300 रुपये नुकसान में जाता था, लेकिन दोस्त था। मैंने उससे कहा तुम अपना 500 रुपये ले सकते हो। मैं गुड़ परचून दुकानदारी में खत्म कर दूँगा और परचून में मुझे कोई नुकसान नहीं होगा, तो उसे बहुत हौसला हुआ। वह पूरी रकम मिल जाने पर बहुत खुश हुआ।

एक रात तकरीबन 1 या डेढ़ बजे का टाइम था। दौड़ने की आवाजें आने से मेरी आंख खुल गई। गर्मियों के दिन थे, कोठे पर सो रहा था। मैंने ड्योढ़ी के कोठे पर पर निगाह मारी तो 2-3 सिपाही वहाँ खड़े थे। साथ वाले कोठों पर 4-5 सिपाही खड़े थे। मेरी चारपाई के पास जो सिपाही खड़ा था, मैं उसे जानता था। वो मेरे गाँव के पास ही रहता था, तलवाड़ खानदान की रोजाना रिपोर्ट देने के लिए मुकर्रर। उसका नाम रमजान था। मैंने कहा भई रमजान क्या बात है। उसने कहा हमें कुछ पता नहीं। 2 अंग्रेज आफीसर और पुलिस फोर्स आई है। उन्होंने तलवाड़ साहिब और तुम्हारे घर पर छापे मारकर मुकर्रर सिपाही बैठा दिये। मुझे फिकर हुई मेरी बैठक में खिलाफें कानून लिटरेचर भी है और एक पिस्तौल भी है अगर तलाशी हुई तो मुझे 5-7 साल की सजा जरूर हो जायेगी। मैंने उसकी बहुत मिन्नत की और बहुत लालच भी दिया कि मुझे नीचे जाने दे। मैं जल्दी वापिस आ जाता हूँ, लेकिन वो माना नहीं बोला- बहुत सख्त आर्डर है, मैं कुछ नहीं कर सकता। अब तो ईश्वर से ही प्रार्थना कर सकता था, “हे भगवान कृपा करना।” सुबह तलवाड़ खानदान की तलाशी लेने के बाद हमारे घर अंग्रेज आफीसर और पुलिस पहुँच गई। मकान की चाबियां तो रात को ही पिताजी से पुलिस ने ले ली थीं। बड़ा दरवाजे खोलने पर ड्योढ़ी में मेरी बैठक थी, उसमें ताला भी नहीं लगा था। पहले उन्होंने उस बैठक की तलाशी लेनी शुरू की। एक चारपाई, 4 कुर्सियां, एक टेबल, टेबल पर ग्रामोफोन के साथ रिकार्डों का डिब्बा पड़ा था। मैं भगवान का ही जाप कर रहा था। टेबल पर 2 किताबें एक काकोरी साजिश केस और दूसरी रानी आफ झांसी। दोनों खिलाफे कानून थीं और एक गत्ते पर चन्द शेयर लिखे थे। सबसे पहले अंग्रेज का ध्यान उन शे’रों पर गया जो उर्दू में थे। उसने पढ़ने के लिए कहा। उनमें एक शे’र था –

यह हिन्दू कौम ऐसी है कि जिसको हर दो जानब से।

सदा मुस्लिम ओ ईसायत के दो चूहे कुतरते हैं।।

ईसाई लफ्ज सुनते ही अंग्रेज गुस्से में बोला यह इंकलाबी शेर है। भ्राता जमनादास तलवाड़ ने उन्हें कहा – यह इंकलाबी शेर नहीं है। अगर इंकलाबी होता, तो ईसाई या मुसलमान का नाम न होकर अंग्रेज का नाम होता। यह तो समाजी और धार्मिक शेर है। लेकिन इस दौरान मुझे टेबल से वो दो किताबें उठाने का मौका मिल गया। रिकार्डों वाले डिब्बे में किताबें इस तरह रख दीं कि किताब नजर न आये। फिर अंग्रेज ने ऊपर नजर उठाई और कहने लगा इंकलाब पसंदों की तस्वीरें उतार लो। चन्द्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह, बी0के0 दत्त, रामप्रसाद बिस्मिल ये तस्वीरें उन्होंने उतार लीं। महात्मा गांधी, सरदार पटेल, जवाहर लाल नेहरू, सुभाषचन्द्र बोस, खान अब्दुल गफार खान की तस्वीरें न उतारीं। तस्वीरें उतारने के बाद बाहर निकल गये। भगवान की कृपा से पिस्तौल जो पड़ा था वो महात्मा गांधी की तस्वीर के पीछे पड़ा था और टेबल पर उन्होंने सिर्फ ग्रामोफोन ही समझा। बाकी घर में कोई काबिले एतराज चीज नहीं थी। 10-11 बजे तक तलाशी होती रही। कुछ बरामद न होने पर पुलिस चली गई।

सुबह जब अखबार देखा तो उसमें पहली सुर्खी थी- “जिला मरदान के एक विद्यार्थी हरिकिशन ने गवर्नर पंजाब पर लाहौर में गोली चलाई। गवर्नर बच गया है, थोड़ा जख्मी हुआ। एक थानेदार चनन सिंह मारा गया। हरिकिशन गिरफ्तार हो गया।” तब हमें पता चला यह तलाशियां उस सिलसिले में मारी गई हैं। कुछ सबूत न होने के कारण भी कुछ अर्सा बाद हम दोनों भाई, तलवाड़ खानदान के तीन भाई जमनादास, भगतराम, ईशरदास और गोकुलचन्द कपूर सबको गिरफ्तार कर लिया गया। काला कानून था उन दिनों। कोई वकील या अपील की गुंजाइश भी न थी। मजिस्ट्रेट ने हमें हरिकिशन साजिश केस में उनके साथी होने की बिना पर 3 साल के लिए जमानत नेकचलनी के लिए कहा। 5000 रुपये की जमानत हर एक की और 5-5 आदमी जिनकी जायदाद 5-5 हजार की हो। जमानत तो 5 हजार की थी, लेकिन आदमी 5 होने के कारण हर एक आदमी के लिए 25 हजार वाले आदमी हो, तब जमानत हो सकती थी। पहले तो हमने सलाह की जमानत नहीं देनी चाहिए। ऐसे ही कोई बहाना बनाकर जमानत जब्त कर लेंगे और फिर जेल में डाल देंगे। हालात को देखते हुए ऐसे लगता था, कोई इंसाफ की बात की सुनवाई तो थी ही नहीं। लेकिन बाद में बुजुर्गो ने यह फैसला कि 3 साल का लम्बा अर्सा है जमानतें देनी चाहिए और इस तरह जमानतें देने लगे बाहर से। मैं और भ्राताजी पेशावर जेल भेज दिये गये। गोकुलचन्द और ईशरदास मरदान जेल रहे। भगतराम तो पहले ही जेल में थे। पेशावर जेल पहुँचने पर 2 दिन पहले अलग रहे। वहाँ एक बुजुर्ग थे उसका नाम भी राधाकृष्ण था, उसे नवार बनाने का काम दिया गया था। मैंने उससे पूछा कि आपको किस गुनाह में सजा हुई है और कितना अर्सा की। मैं अभी तो छोटा था मेरे ऐसे हमदर्दी के सवाल पूछने पर पहले तो उसने मुझे देखा, फिर कहा- बेटा, मुझे 14 साल की सजा हुई है कत्ल के केस में। मैंने पूछा- ‘कत्ल आपने क्यों किया?’ उसने कहा- ‘मुझे आज तक पता नही है कि वो कत्ल किया किसने और मुझ बेगुनाह को 14 साल की सजा हो गई। उन गवाहों ने मुझसे किस जन्म का बदला लेना था, जो इतना अनर्थ कर दिया। अब 4 साल हो गये हैं। तकरीबन 6 साल और जेल में रहना है। 10 साल बाद रिहाई होगी शायद।’

मैंने दिल में सोचा कि यह जेल ऐसे बेगुनाह लोगों से भरी पड़ी है। हमने कौन सी हरिकिशन साजिश में शमूलियत की थी। हरिकिशन ने तो ऐसी बात तक कभी नहीं की थी। तीसरे दिन मुलाहिजा हुआ, भ्राताजी को सख्त मुशक्कत दी गई, चक्की पर गंधम पिसाई 20 सेर रोजाना। मुझे अलग रखा गया था। मेरी मुशक्कत एक ग्रास, वो भी कोल्हू की तरह चक्की चलाने का काम था। एक आदमी आगे से खींचता, 2 आदमी पीछे से धकेलते। 2 ग्रास लगे थे जिस ग्रास पर मुझे लाया गया, 3 आदमी डेढ़ मन आटा पीसते। दूसरा ग्रास जो साथ में उस पर सियासी कैदी काम करते थे। मुझे उस ग्रास पर दूसरे ग्रास वाले लड़के ने अपनी तरफ बुला लिया। उसका पूरा नाम देवीदत्त था। उसने समझ लिया था कि यह लड़का इखलाकी कैदी नहीं हो सकता। उसने कहा हमारे साथ यहाँ ही रहो, काम तो हमारे लिए उतना ही फेंक जाते हैं पीसने के लिए लेकिन हम आधा किलो खाते हैं और आधा किलो ही पीसते हैं। तुमने यहाँ कुछ करना नहीं है। सुबह दारोगा या जेलर राऊंड पर आये, तो सिर्फ दिखाने के लिए थोड़ा हाथ लगाना है। बाकी सारा दिन हम गपशप या नावेल पढ़ने में ही गुजारते थे।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

4 thoughts on “स्मृति के पंख – 10

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , यह अधियाए भी अच्छा लगा और उस समय की बातें मालूम हुईं . अंग्रेजों ने सख्ती से राज किया नहीं तो वोह एक दिन भी भारत में ठहर नहीं सकते थे . देश बड़ा था , गोरे इतने नहीं थे , इस लिए उन्होंने ढंग ही ऐसे अपनाए थे कि वोह भारत पर काबिज़ रहें . स्थिति आज भी वैसी ही है . आज काले अँगरेज़ भी बहुत हैं जो सिआस्ती लाभ के लिए पता नहीं किया किया ढंग अपनाते हैं . भारती जेलों में अब भी इतने कैदी हैं जिन की सजा पूरी हो चुक्की है लेकिन अभी भी जेलों में हैं . अंग्रेजों ने राज करने के लिए बहुत सख्ती से काम लिया . आम अन्पड लोग दुखी हो कर इसी लिए कह देते थे कि इस से तो अंग्रेजों का राज ही अच्छा था . हम जलिआं वाले बाग़ को तो बहुत याद रखते हैं , लेकिन जो १९८४ में हज़ारों सिख मार दिए और एक को भी नहीं पकड़ा , किया यह आज़ाद भारत का इन्साफ है ?

    • आपका कहना सत्य है, भाई साहब. आज भी देश में काले अंग्रेजों का बोलबाला है. १९८४ के दंगों का मैं गवाह हूँ. ये दंगे देश के ऊपर कभी न मिटने वाला कलंक है.

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत से बुजुर्ग तो यह कहते हैं कि अंग्रेजों के राज में न्याय होता था, पर इस कहानी से लगता है कि उन दिनों भी न्याय के नाम पर अंधेर ही होता था.

  • मनमोहन कुमार आर्य

    आरम्भ से अंत तक आत्मकथा पढ़ी। अंग्रेज पुलिस के अत्याचारों की जानकारी मिली। आज की युवा पीढ़ी हमारे देशभक्त वीरों की इन कुर्बानियों से पूरी तरह से लापरवाह है। ईश्वर न करे कि कभी दुबारा ऐसा समय आये।

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