आत्मकथा

स्मृति के पंख – 12

रात को मुझे बुखार हो गया। मैंने वार्डन को बुलाकर कहा, लेकिन उसने कोई परवाह नहीं की। सुबह मैंने सुखनजी से बताया कि वार्डन ने रात को मेरे बुखार को ध्यान नहीं दिया, तो उसने कहा कि मुझे क्यों आवाज नहीं दी। अगर फिर तकलीफ हुई तो मुझे आवाज देना। रात को फिर बुखार हो गया। सुखनजी ने वार्डन को कहा- डाक्टर को बुलाओ। रात के 12-1 बजे का टाइम था, कम्बल लपेटे डाक्टर आया। थर्मामीटर लगाकर देखा। बुखार 100 से ऊपर था। एक गोली खाने के लिए दी और कहा सुबह अस्पताल आ जाना। मुसलमान डाक्टर था, बहुत नेक आदमी था। सुबह क्रांति कुमार ने कहा कि अस्पताल जाओ और मुझे अपना कम्बल दे दिया कि ओढ़ लो। अस्पताल में हमारे साथी इस कम्बल की बदौलत तुझे पहचान लेंगे कि अपना आदमी है। वार्डन के साथ मैं अस्पताल पहुँचा, तो 2-4 लड़के आ गए। दुआ सलाम के बाद मुझे अस्पताल में दाखिल करवा दिया। बीमार के लिए अस्पताल में पूरे आराम का बंदोबस्त था। खाने में भी मूँग की दाल, डबलरोटी, फ्रूट, दलिया, जो जरूरी हो डाक्टर लिख जाता। बुखार दूसरे दिन उतर गया। लेकिन मैं 5-6 दिन अस्पताल में रहा।

आज मुझे मुलाहिजा के लिए जाना था। उन साथियों ने कहा कि दारोगाजी एक बुजुर्ग हिन्दू हैं और अच्छे आदमी हैं। मुलाहिजा के बाद वो आपसे पूछेंगे कि कोई काम जानते हो। तुमने कह देना प्रेस का काम जानता हूँ। दोबारा अगर पूछे कि प्रेस में क्या काम करते रहे, तो कह देना कम्पोज। फिर तुम्हें प्रेस में काम दे देगा और वहाँ आराम ही आराम है। जब डाक्टरी मुलाहिजा और वजन और सेहत देख लेने के बाद वैसे ही दारोगा साहब ने पूछा और मैंने भी वैसे ही जवाब दिया। इस तरह प्रेस में मुझे काम दिया गया। दूसरे दिन प्रेस में पहुंचा, जो लड़के वहाँ काम करते थे उन्हें सब मालूम था कि मैं आ रहा हूँ। पहले मुझसे मिले, फिर अपने इंचार्ज से मिलवाया, जो एक मुसलमान था और आजादी का पूरा शैदाई था। उसने मुझसे कहा कि यहाँ कोई तकलीफ नहीं है। यहाँ के सब लड़के सियासी कैदी हैं। तीन प्रेस मशीने थीं, एक सियासी लोगों के लिए और 2 पर इख्लाकी कैदी काम करते थे।

जो लड़के मेरे साथ थे, सब ग्रेजुएट थे। प्रेस में जो बाहर मुकदमे होते थे, उनकी नकलें छापने का काम ज्यादा था। वो कापियां उठा लाता, नरेन्द्र अमृतसर का एक लड़का था और वो फैसले वो पढ़कर सुनाता। हमें पूरी कहानी की तरह लगता। जर, जमीन और जन के झगड़े होते, जिसमें मौत तक हो जाती और काफी लोग जख्मी भी होते। नकलें आगे अपील के लिए जरूरी होती, उसकी तीन-चार कापियां करने का काम ज्यादा था। और भी काम था लेकिन हम तो सारा दिन जैसे वो कहानी ही सुनते रहते। कुछ देर गपशप और ताश खेलने में गुजर जाती। 4 बजे वहाँ चाय का भी अपना बंदोबस्त बना रखा था। इंचार्ज हमें कहता, “किसी चीज की जरूरत हो तो बाहर से मैं ला दिया करूँगा। यह दूसरा गोरा, जो मेरे साथ मेरा असिस्टेंट है, कुछ पढ़ा लिखा भी उतना नहीं है और उसे 300 रुपया हफ्ता मिलता है और मुझे 300 रुपया महीना, जबकि मैं इंग्लैण्ड से पढ़कर आया हूँ। यह तो एक बेइंसाफी की मिसाल मेरे सामने है। तुम इसकी बिल्कुल परवाह मत करो, तुम्हारे खिलाफ कुछ नहीं कर सकता।” उस वक्त ऐसे लगता था, चाहे कोई सरकारी नौकरी भी क्यों न हो, उसके दिल में आजादी के लिए तड़प और आजादी के लिए काम करने वालों के प्रति बहुत प्यार और हमदर्दी का जज्बा था।

लाहौर की जेल और पेशावर की जेल में बड़ा फर्क था। बोस्टल जेल लाहौर में उन कैदियों को रखा जाता था, जिनकी उम्र 22 साल से कम हो। पेशावर जेल से जो कपड़े कैदियों वाले मैंने पहने थे, उन्होंने उतरवा कर एक गठरी बंधवा कर रखवा दिये। आधे बाजू वाली कमीज, नेकर और जुराबें पहनने की वहाँ इजाजत थी। वो कपड़े अपनी तरफ से 2 जोड़ी उन्होंने मुझे दे दिये। 5 बजे छुट्टी के बाद 1 घंटा के लिए 2 ग्राउंड थे एक में बालीबाल और एक में फुटबाल खेलते थे और 6 बजे बैरक पहुंच जाते। मेरी बैरक में जिन साथियों ने मुझे प्यार दिया मुझे उनमें शम्भूनाथ, रामचन्द्र, अता मोहम्मद, नित्यानन्द और महानन्द मुझे इतने नाम ही याद हैं। बाकी लड़के भी बहुत अच्छी तरह पेश आते।

सुबह नाश्ते में भुंजे हुए चने और गुड़ मिलता था। चाय हम अपनी बैरक में भी बना लेते। वो लोग मेरे कपड़े भी धो देते। 12 बजे रोटी का टाइम होता। पेशावर जेल में तो लोहे की एक तश्तरी देते थे दाल के लिए, यहाँ के बर्तन भी बहुत साफ और अच्छे थे। थोड़े दिन गुजरने पर मैंने घर खत लिखा पिताजी को कहा कि ‘मेरे लिए तो आप बिल्कुल चिंता मत करना। मैं तो बहुत आराम से यहाँ रह रहा हूँ। जिन लोगों को पता चलता कि मैं हरिकिशन साजिश केस से संबंध रखता हूँ, वो बहुत इज्जत करते। आप भ्राताजी की जमानत जरूर जल्दी करवाने का बंदोबस्त करें। जवाब में जो पत्र आया उसमें भ्राताजी के जमानत हो जाने का और रिहाई का लिखा था जैसे मेरी सब चिंताएं दूर हो गई। अब तो जेल लगता था एक सैरगाह है।’

चारसद्दा के एक खान परिवार से ताल्लुक रखता था फसी अहमद, बी क्लास में था। दूसरे-चौथे दिन पूछने आ जाता। ग्राउंड में डाक्टर सतपाल जरूर मिल जाते। वैसे डा. सतपाल वालंटीयर्स का ध्यान भी बहुत रखते। दूसरे स. गोपाल सिंह कौमी हर वालंटीयर से पूछते और जो उसके पास कमी होती बाहर से उनको मंगवा देते। एक दफा मेरे बूट देखकर भी उसने मुझे बहुत कहा कि साईज मुझे बता दो, लेकिन ऐसे मुझे अच्छा नहीं लगता था। मैंने कहा- सरदार साहब, मेरे पास सब सामान ठीक है। अता मोहम्मद बहुत खुश आवाज थे। जेल में रात को गाना कानूनन मना है, फिर भी जब वो गाना शुरू करता, तो वार्डन भी दरवाजे के साथ आकर खड़े हो जाते। रात को 11-12 बजे तक गाने का प्रोग्राम चलता रहता।

एक दिन फर्श पर चल रहा था कि जूते में जो 5 रुपये थे उनमें से 1 रुपया फर्श पर गिरा। उसकी आवाज से नजदीक जाते हुए वार्डन ने रुपया उठा लिया और मुझे पकड़ लिया और दारोगा के सामने पेश किया। दारोगाजी ने मुझसे कहा कि और कितने रुपये हैं बेटा तेरे पास मैंने कहा 4 और हैं। उसने रुपये लेकर मुझसे कहा कि जेल में रुपया रखना जुर्म है, फिर तुमने क्यों ऐसा किया और मेरी 2 दिन की मुआफी काट दी।

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

3 thoughts on “स्मृति के पंख – 12

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    कहानी से यह पता चलता है कि देश की आजादी के लिए लोगों में कितना जोश था . जो अँगरेज़ को तन्खुआह हफ्ते के तीन सौ रूपए और भारती को महीने के तीन सौ रूपए एक बेइंसाफी तो थी लेकिन यहाँ तक मुझे गियान है , अंग्रेजों को इंग्लैण्ड में हफ्ते के बाद तन्खुआह मिलती थी और उन को ओवरसीज़ आलऊंस भी मिलता था . दुसरे मालक नौकर का फरक तो होता ही है , इसी लिए तो देश की आजादी के लिए इतने संघर्ष हुए.

  • विजय कुमार सिंघल

    उस ज़माने की जेलों का हाल भी आज की जेलों जैसा ही था. आज भी पैसे या पहुँच वाले कैदी जेलों में मौज करते हैं, जबकि गरीब और असहाय कैदी कष्ट उठाते हैं.

  • Man Mohan Kumar Arya

    अंग्रेजों की जेल की बाते पढ़कर ज्ञानवर्धन हुआ। लेख में जिस विषय का वर्णन है वह उपयोगी एवं महत्वपूर्ण है।

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