कविता

कुदरत का कहर

बार बार ये भूकंप आये
बार बार मन घबराये
ऐसी गोटी घुमाके प्रभू
अपनी TRP बढाये
हम तो ठहरे भले नास्तिक
तू डराये हम डर जाये
मगर उनका क्या बोलो मालिक
जो रोज तेरे दर भोग लगाये
एक बार मे कर दो पार
काहे ये किस्सा गहराये
या तो जीये चैन से हम
या तुमसे मिलने आ जाये

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने ektasarda3333@gmail.com

One thought on “कुदरत का कहर

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया ! कुदरत के मन में क्या है समझना कठिन है.

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