हक़–ओ-इन्साफ़
क़ाज़ी भी है मजबूर , क़ातिल को बचाना है
एक तरफ हक़ हैं , दूसरे हुज़ूरे आला है |
एमाँल-ए-शैतान ने , डुबोयी थी कश्ती मझधार में
बच गए कुल्ज़ुमे सरसर से, रब की मेहरो बफा है |
हक़-ओ-इन्साफ़ एक सिक्के के दो पहलू हैं
एक ऊपर है तो दूसरा निश्चित ही नीचे है |
वो दौर और था , हर बात में मेरी वह खुश होती थी
यह दौर और है , हर बात से मेरी वह चिढ जाती है |
कुछ वक्त की नजाकत है , कुछ उम्र का है तकाज़ा
दोष नहीं उनका कोई, अब हालत ही हम पर हावी है |
गिला नहीं कोई ऐ जिंदगी तुझसे ,पर इतना बता दे
यात्रा के हर मोड पर, मुझसे कितना इन्साफ़ किया है ?
— कालीपद “प्रसाद”
बहुत खूब !