कविता

दादा जी

 

मां…. ! सुनो ना
कहां हो तुम
सुनो ना मां
आज स्कूल में,,,,,,,,,
वापस स्कुल से आते ही खोजती है वो मुझको
और —
फिर शुरू होती है
घंटो तक ना खत्म होने वा्ली
उसके दोस्तों की मीठी मीठी बात
बच्चे दरसल चाहते हैं करना हमसे
अपनी भावनाओं का सम्प्रेषण
रोज रोज
व्यस्त दिनचर्या में
हमारे पास भी
कहां होता इतना वक्त
उसकी नादान बातों के लिये
भेज देती हूं
दादाजी के पास
जी हां ! दादाजी
जिनके पास है
ज्ञान और अनुभव का है विशाल भंडार
या यूं कहें
दादाजी हैं विकिपीडीया!
गणित का कोई कठिन प्रश्न हो
या दोस्तों के संग
लड़ाई झगड़े के मसले
दादाजी धैर्य पूर्वक सुनते हैं
और
ढुंढ ही लेते हैं सभी समस्याओं का हल
यूं भी
आधुनिक जीवन शैली ने
बचपन की उम्र छोटी कर रखी है
बच्चे अब
गिल्ली – डंडा या
गुड्डे- गुड़ियों का खेल नही खेलते
बगिचों मे तितलियां नहीं पकड़ते
पतंगें नही उड़ाते
बंद कमरों मे
नेट सर्फिंग करते
बच्चे कहां रह जाते हैं
बहुत जल्दी व्यस्क हो जाते हैं सब
लेकिन दादाजी के होने से
उन्हें अकेलापन मह्सूस नही हो्ता
बातों बातों में
किस्से कहानीयों में
सरलता से बो देते हैं वे
ज्ञान – विज़ान के गुढ रहस्य
होमियोपैथ की दवा जैसी
धीरे धीरे गहरे तक
असर करती हैं उनकी बातें
विचारों के प्रवाह से
दो पीढ़ियों के बीच
बनता हंसता मुस्कुराता
खूबसूरत जीवंत रिश्ता
रिटारमेंट के बाद
सत्तर को छूते
सुबह सुबह
फूल पत्तियों से बातें करने के बाद
हमेशा मायूस रहने वाले दादाजी
को तो जैसे मिला हो नया जीवन
अब वो भी
दादी के बगैर खुद को अब कभी
खुद को तन्हा मह्सूस नही करते
कभी कभी
मुझे महसूस होता है कि
मै जहां चाइल्ड केयरिंग हूं
वे चाइल्ड लविंग हैं
उनके होने से
सुरक्षित बचपन सुनहरा जीवन का
मुझमे भी
बना रहता है भरोसा
घर भी
भरा पूरा लगता
दादा जी का ना होना
घातक है समाज के लिये !!

भावना सिन्हा !!

डॉ. भावना सिन्हा

जन्म तिथि----19 जुलाई शिक्षा---पी एच डी अर्थशास्त्र

One thought on “दादा जी

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर कविता !

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