संस्मरण

मेरी कहानी 76

बहादर, उस का छोटा भाई हरमिंदर जिस को हम लड्डा बोलते थे (लड्डा उस का बचपन का पियार का नाम था) और मैं तकरीबन दो तीन हफ्ते बाद जरुर इकठे होते थे। बहादर और उन के चाचा जी केसर सिंह ने तो अपना मकान बहुत पहले ही ले लिया था जो 155 NINVEH ROAD था। और हमारे साथ एक और लड़का होता था जगदीश। जगदीश और बहादर की दोस्ती तो अभी तक बरकरार है और हर रोज़ लाएब्रेरी में मिलते हैं। जगदीश और बहादर की यह दोस्ती इसलिए है कि जब यह इंडिया से आये थे तो इकठे एक ही प्लेन में आये थे और किओंकि जगदीश ने अपने जिस रिश्तेदार के घर जाना था वोह बहादर के चाचा जी को भी जानता था और उनका घर भी बहुत दूर नहीं था, इस लिए यह दोस्ती एक रिश्तेदार की तरह ही हो गई। बहुत पहले मैं हेमराज हलवाई के बारे में लिख चुक्का हूँ जो जगदीश का ही रिश्तेदार था और हेमराज से ही जगदीश ने विवाह शादीओं के लिए खाने बनाने सीखे थे, जिस से वोह एक परसिध हलवाई बन गिया था. जब भी हम मिलते, चारों दोस्त इकठे हो कर मस्ती करने जाते। हम फ़िल्में देखने जाते, पार्कों में जाते और आखर में बढिया से बढिया प्ब्ब में जाते और बीअर का मज़ा लेते। बीअर तो एक बहाना ही होता था इकठे मिल बैठने का। बीअर हम को इतनी माने नहीं रखती थी जितनी बातें करके मज़ा लेने की होती थी । हम ताश खेलते, डार्ट खेलते, और खूब बातें करते।

1960 से पहले जो लोग आये थे वोह ज़्यादा तर पत्निओं के बगैर ही होते थे क्योंकि इंग्लैण्ड में रहने का किसी का भी विचार नहीं होता था। एक ही मकसद होता था कि कुछ पैसे जमा हो जाएँ और गाँव में अपने अपने घरों की आर्थिक वयवस्था अच्छी कर सकें। एक यह भी लालच होता था कि एक पाउंड के 13 रूपए इंडिया में मिल जाते थे जिस से इंडिया में काफी पैसे मिल जाते थे और हमारे आने के बाद तो एक काम और भी शुरू हो गिया था और वोह था ब्लैक में पैसे भेजने का। मुझे यह नहीं पता कि यह कैसे होता था लेकिन मुझे याद है पब्बों में हमारे कुछ इंडियन लोग एजेंट बने हुए थे जो इंडिया में एक पाउंड के बीस बाइस रूपए दे देते थे और यह बढ़ते बढ़ते चालीस रूपए तक हो गए थे। इस के कुछ देर बाद तो इस से भी अधिक हो गए थे। आज जब भारत में बिदेसों में काले धन की बात होती है तो मुझे लगता है यह भी काले धन का ही एक हिस्सा होगा क्योंकि बहुत अमीर लोग इंडिया में अपनी अन टैक्स्टड मनी को इंडिया में ही सस्ते दामों पर बाँट देते होंगे और इस के पाउंड और डॉलर बिदेस में ले कर बिदेशी बैंकों में ही रख देंगे होंगे। यह मेरा अंदाज़ा ही है, मैं गलत भी हो सकता हूँ। मेरा लिखना तो इस लिए ही है कि हमारे लोग करड़ी मुशकत करके अपने अपने घरों को पैसे भेजते थे ताकि इंडिया में अपनी और अपने भाईओं की आर्थिक वयवस्था सुधर सके।

लेकिन 1960 के बाद स्कूलों कॉलजों से जवान लड़के आने शुरू हो गए थे। इन में कई लड़के तो सगाई करवा के आते थे और कुछ साल काम करके वापस इंडिया जा कर शादी करवा लेते और इंग्लैंड में वापस आ कर अपना घर खरीदने की कोशिश करते। कुछ देर बाद उन की पत्नीआं भी आ जातीं। उस वक्त तो बहुत शादियां ऐसी भी होती थीं की इंडिया में लड़के की फोटो से ही शादी कर दी जाती थी और बाद में जब वोह लड़का इंगलैंड में अपना घर खरीद लेता तो वोह अपनी पत्नी को मंगवा लेता। इस से एक तो लड़के को काम छोड़ने की कोई जरुरत नहीं होती थी, दूसरा उस का किराया आदिक बच जाता था। जवान लड़कों की देखा देखी अब तो पुराने लोग भी घर लेने लगे थे और उन के बच्चे इंडिया से आने लगे थे जिन में कई बच्चे तो अब बहुत बड़े थे जो आ कर काम करने लगे थे। वुल्वरहैम्पटन में पहला गुरदुआरा फ़िनी स्ट्रीट में एक पुराना चर्च खरीद कर बनाया गिया था । यह बहुत खस्ता हालत में था और इस में गियानी भी कोई नहीं था।

सिर्फ कुछ लोग जो थोह्ड़ा बहुत गुरबाणी पढ़ना जानते थे वोह काम से वापस आ कर गुरदुआरा खोल लेते और पाठ करने लगते। क्योंकि कोई तजुर्बेकार गियानी तो होता नहीं था, मुझे याद है एक आदमी की तो एक जोक परचलत थी, वोह यह कि एक आदमी की यहां मृत्यु हो गई। उस के फ्यूनरल के बाद जब गुरदुआरे में भोग पाया गिया तो अरदास के वक्त उस आदमी ने अरदास गलत बोल दी। गुरु ग्रन्थ साहब के सामने खड़ा हो कर जब वोह अरदास कर रहा था तो उस ने गलती से कह दिया, “हे सच्चे पातशाह, इस ख़ुशी में कड़ाह परशाद की देग हाजर है ” कुछ लोग उसी वक्त खड़े हो गए और उसको सही अरदास करने के लिए कहा गिया। यह जोक बहुत देर तक परचलत रही कि विचारा अरदास करने वाला सारा दिन बारह घंटे काम कर करके तो पहले ही पागल था, अरदास किया होनी थी । अब कुछ कुछ शादियां भी यहां ही होनी शुरू हो गई थीं जो घरों में ही कुछ दोस्त इकठे हो के कर देते और इस के बाद पब्ब में चले जाते। घर के लोग ही इकठे हो कर सादा भोजन बना देते। घर में बैठ कर ही खाना खाने के बाद लड़की को विदा कर दिया जाता।

उन दिनों को याद करके कभी कभी हंसी भी आ जाती है। कभी कभी हम चारों पब्ब से आते वक्त मीट जो ज़्यादा तर चिकन का ही होता था, ले आते। एक बड़े पतीले में पांच छै प्याज़ काट कर डाल देते और उस में एक टिक्की बटर की जो आधा पाउंड की होती थी डाल देते । बीच में अधरक लसुन और हरी मिर्चें डाल देते और तड़का भूनना शुरुम कर देते और सारे मसाले भी डाल देते । लड्डा आटा गूंधने लगता। आटा गूंधते वक्त उस की उंगलिओं को देख देख कर हम हँसते लेकिन यह काम हमेशा लड्डे के ज़िमे ही होता था और रोटीआं भी वोही पकाया करता था जो किसी देश के नक़्शे जैसी ढीली सी होतीं थीं । मीट में घी ज़्यादा होने के कारण बहुत ही स्वादिष्ट होता था। जब मीट बन जाता तो पतीले के इर्द गिर्द बैठ कर खाने लगते और बातें भी करते रहते। कभी कभी तो सभी पतीले में ही खाने लग जाते। इस में इतना मज़ा होता था कि बताना मुश्किल है।

मेरे डैडी जी चार पांच मील दूर dudley में काम करने लग गए थे। सर्दिओं के दिनों में काम पर पौहंचना मुश्किल हो जाता था, इस लिए उन्होंने वहीँ dudley के netherton इलाके में किराए पर कमरा ले लिया था। कभी कभी डैडी जी मुझ को मिलने आ जाते और कभी मैं वहां चले जाता। टेलीफून होता नहीं था, इस लिए कोई जरूरी काम हो तो खत डाल दिया करते थे। एक दफा डैडी जी ने मुझे खत डाल कर मुझे netherton बुलाया। जब मैं वहां पौहंचा तो उस दिन डैडी जी कुछ ज़्यादा ही खुश थे। मेरे जाते ही वोह मुझे एक पब्ब में ले गए। दो दो ग्लास बीअर के पी के हम वापस आ गए। फिर डैडी जी ने रैड वाइन की बोतल खोली और हम पीने लगे। पीते पीते डैडी जी ने मुझे बताया कि उन्होंने इंडिया जाने की सीट बुक करा ली थी। डैडी जी मुझ को कहने लगे, ” गुरमेल ! सारी ज़िंदगी बिदेसों में काट कर अब मैं तंग आ गिया हूँ, तेरा बड़ा भईया अफ्रीका में सैट है, तेरी बहन जी भी शादी करा के अफ्रीका में सैट है और तू यहां सैट हो जा और कुछ देर बाद इंडिया आ कर शादी करा के अपनी पत्नी को यहां ले आ, क्योंकि घर तो तूने अब ले ही लिया है। तेरा छोटा भईया इंडिया में सैट हो जाएगा, इस लिए मैं तुम सब की ओर से फ्री हो जाऊँगा, अब बाकी की ज़िंदगी मैं गाँव में ही गुज़ारना चाहता हूँ”. मुझे कुछ झटका सा लगा और उदास हो गिया। डैडी जी ने मेरे गलॉस में कुछ वाइन और डाल दी और बोतल ख़त्म हो गई थी। वाइन में ज़्यादा नशा नहीं होता, इस लिए हम समान्य बातें करते रहे। खाना बना कर पहले ही डैडी जी ने रखा हुआ था। खाना खा कर मैं वुल्वरहैम्पटन को आने के लिए तैयार हो गिया। डैडी जी मुझे बस पर चढ़ाने के लिए आये। बस पकड़ कर मैं वुल्वरहैम्पटन वापस आ गिया।

इस के एक हफ्ते बाद डैडी जी अपना सारा सामान ले कर मेरे पास आ गए और हम सीपोर्ट पर जाने की तैयारी करने लगे। डैडी जी हमेशा बाई सी ही जाना पसंद करते थे। शिप टिलब्री डॉकयार्ड से चलना था। नीयत दिन हम वुल्वरहैम्पटन रेलवे स्टेशन से लंदन की ट्रेन में बैठ गए और दो घंटे में लंदन पैडिंगटन रेलवे स्टेशन पर पौहंच गए। वहां से हम ने अंडरग्राउंड ट्रेन पकड़ी और सीधे टिलबरी सीपोर्ट पर जा पुहंचे। डैडी जी सामान के पास मुझे छोड़ कर जहाज़ की ट्रैवल कंपनी पी ऐंड ओ के ऑफिस की और चले गए। तभी एक वैल सूटड बूटड इंडियन आदमी मेरे पास आया और मुझ से अंग्रेजी में बातें करने लगा कि उस का बटुआ कहीं खो गिया था और उस के पास कोई पैसा नहीं था। मुझे कहने लगा कि मैं उस को दस पाउंड दे दूँ और वोह मेरे घर दस पाउंड का चैक भेज देगा। मैं दस पाउंड उस को देने ही लगा था कि उधर डैडी जी ने देख लिया और वहां से ही मुझ को बोले, ” दफा कर इस को ! ऐसे बहुत चालाक आदमी देखे हैं, यह दगाबाज लोग हैं “. डैडी जी की बात सुन कर मुझे मन ही मन में डैडी जी पर बहुत गुस्सा आया कि उन्होंने बहुत गलत बोला था। वोह शख्स वहां से एक दम चले गिया। कुछ देर बाद मैं और डैडी जी अपना सामान शिप की और ले जाने लगे तो मुझे यह देख कर बहुत हैरानी हुई कि जो शख्स मुझ से पैसे मांग रहा था , वोह अपने दोस्तों के साथ जिन में कुछ फैशनेबल कटे हुए बालों और स्कर्ट पहने हुए लड़किआं भी थीं वोह हंस हंस कर उनसे बातें कर रहा था। मुझे ताउज़ब हुआ कि डैडी जी कितने सही और हुशिआर थे कि उन्होंने कितनी जल्दी पहचान लिया था कि यह शख्स चालाक था। सारी ज़िंदगी में मुझे ऐसा शख्स कभी नहीं मिला और मैं भी इस बात से हुशिआर हो गिया था कि कुछ लोग इस दुनिआ में हैं जो हमारी शराफत का नाज़ायज़ फायदा उठा सकते हैं।

ट्रॉली पर हम ने अपना सामान रखा और शिप में जाने के लिए तैयार हो गए। मेरे लिए भी डैडी जी ने पास ले लिया था। शिप तो नज़दीक ही खड़ा था जैसे हम किसी शहर के पास हों। नज़दीक से मैंने कभी भी शिप नहीं देखा था। रैंप पर मैं ट्रॉली घसीट रहा था और डैडी जी साथ साथ बड़े बड़े बैग पकडे आ रहे थे। आगे गए तो स्मार्ट कैप और चिट्टे कपड़ों में एक कैपटन जैसा गोरा खड़ा था, उस ने पासपोर्ट और ट्रैवल डाकुमेंट देखे और डैडी जी की बर्थ किस ओर थी, इशारा कर दिया। हम ऐसे जा रहे थे जैसे गलिओं मुहल्लों में घूम रहे हों। कमरे ही कमरे दिखाई दे रहे थे जिन पर नंबर लगे हुए थे। डैडी जी को तो बहुत तज़ुर्बा था, इस लिए उन्होंने जल्दी ही अपना कैबिन ढून्ढ लिया। चाबी लगा कर डैडी जी ने दरवाज़ा खोला और हम अंदर चले गए। छोटा सा कैबिन था लेकिन बहुत बड़ीआ था। कैबिन में डैडी जी ने अपने हिसाब से सारा सामान रख दिया। फिर डैडी जी मुझे कहने लगे, “चल तुझे सारा शिप घुमा कर दिखाऊं ” और हम चल पड़े। देख देख कर मैं हैरान हो रहा था कि यह शिप था या कोई छोटा सा शहर। जहाज़ में बहुत सी मंज़िलें देख देख कर मैं हैरान हो रहा था। एक मंज़िल पर तो दूर दूर तक कारें ही कारें दिखाई देती थीं, एक पर बड़े बड़े कन्टेनर रखे हुए थे, पता नहीं उन में किया किया होगा। एक स्टोरी पर गए तो कुछ गोरे स्वीमिंग पूल में नहा रहे थे, एक जगह टैनिस खेल रहे थे। फिर हम ने डाइनिंग हाल देखा जो बहुत बड़ा था और उस पर टेबल और कुर्सियां रखे हुए थे। एक तरफ बहुत बड़ीआ बीअर बार थी और काउंटर के पीछे तरह तरह की बोतलें रखी हुई थी। एक जगह बड़ा सा खाली प्लैटफॉर्म सा था। डैडी जी ने बताया कि इस पर गोरे गोरीआं डांस करते हैं और बैंड वाले बैंड बजाते हैं।

घूम घूम कर हम थक गए थे। हम वापस कैबिन में आ गए। बहुत बातें हम ने कीं। क्योंकि अब मैंने अकेले ही रहना था, इस लिए उन्होंने मुझे बहुत सी नसीहतें दीं। यह भी कहा कि कुछ देर बाद मैं इंडिया आ कर शादी करा लूँ और इंगलैंड में सैट हो जाऊं। हम बाप बेटा गले लग कर मिले और भरे मन से मैं वापस चल पड़ा। पीछे मुड़ कर मैंने देखा डैडी जी की आँखों में से आंसू बह रहे थे। रोता रोता मैं भी चलने लगा। ट्रेन पकड़ कर मैं पैडिंगटन रेलवे स्टेशन पर पुहँच गिया।(उन दिनों लंदन पैडिंगटन पर ही जाया करते थे लेकिन बाद में आज तक हम यूस्टन रेलवे स्टेशन पर ही जाते हैं)। वुल्वरहैम्पटन का टिकट मैंने लिया और ट्रेन में बैठ कर वुल्वरहैम्पटन की ओर रुखसत हो गिया, किया मालुम था कि अब इंगलैंड ही मेरा देश बन जाएगा और भारत मेरे लिए सिर्फ सपनों का देश ही रह जाएगा।

चलता . . .

3 thoughts on “मेरी कहानी 76

  • विजय कुमार सिंघल

    आपके पिताजी देश चले गये और आपको अकेले लंदन में रहने को छोड गये यह प्रसंग बहुत मार्मिक है। अपनों से दूर रहना बहुत बड़ा दुख होता है। पर अपनी मेहनत से आपने परदेश में भी अपना मुक़ाम बना लिया यह प्रसन्नता की बात है।

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख आरम्भ से अंत तक पढ़ा। आपकी मित्र मंडली और वहां के बारे में जानकार ज्ञानवर्धन हुआ। आपने लन्दन में रहकर कड़ी मेहनत की और अपने परिवार और देश को मिस किया। आपने वहां की कुछ खुशियों की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। अभी भी लगता है कि आपका मन भारत में ही है। यह स्वाभाविक ही है। लेख के अंतिम पैराग्राफ ने प्रभावित एवं द्रवित किया। वेद शास्त्र कहते कि संतान माता पिता की कितनी भी सेवा कर ले, वह उनका ऋण कभी चुका नही सकते। आज की किश्त के लिए धन्यवाद। सादर।

  • Man Mohan Kumar Arya

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। लेख आरम्भ से अंत तक पढ़ा। आपकी मित्र मंडली और वहां के बारे में जानकार ज्ञानवर्धन हुआ। आपने लन्दन में रहकर कड़ी मेहनत की और अपने परिवार और देश को मिस किया। आपने वहां की कुछ खुशियों की बहुत बड़ी कीमत चुकाई है। अभी भी लगता है कि आपका मन भारत में ही है। यह स्वाभाविक ही है। लेख के अंतिम पैराग्राफ ने प्रभावित एवं द्रवित किया। वेद शास्त्र कहते कि संतान माता पिता की कितनी भी सेवा कर ले, वह उनका ऋण कभी चुका नही सकते। आज की किश्त के लिए धन्यवाद। सादर।

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