पंडित सत्यानन्द शास्त्री का परिचय और उनकी साहित्य साधना
ओ३म्
एक दिन प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी की मेहता जैमिनी पर पुस्तक में स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी पर कुछ शब्द पढ़े जिसमें कहा गया था कि आर्य संन्यासी विज्ञानानन्द जी ने उनसे एक बार स्वामी वेदानन्द जी का जीवनचरित लिखने का आग्रह किया था। वह भी इसे तैयार करना चाहते थे परन्तु अपनी व्यस्तताओं के कारण वह इसे कर नहीं पाये। वहीं उन्होंने पं. सत्यानन्द शास्त्री लिखित स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी की जीवनी का उल्लेख भी किया था। इन पंक्तियों को पढ़ कर हममें स्वामी वेदानन्द जी के उस जीवनचरित को देखने की इच्छा हुई। हमें इससे सम्बन्धित कुछ जानकारी डा. भवानीलाल भारतीय जी लिखित ‘आर्य लेखक कोष’ से प्राप्त की और एक लघु लेख बनाकर आर्य विद्वानों से अनुरोध किया कि वह पं. सत्यानन्द शास्त्री जी लिखित स्वामी वेदानन्द जी की जीवनी को प्राप्त करने में हमारा मार्गदर्शन करें। इस सम्बन्ध में हमें आर्यजगत् के समर्पित यशस्वी युवा विद्वान डा. विवेक आर्य, दिल्ली जी तथा श्री विश्वप्रिय वेदानुरागी जी, गुजरात से पुस्तक विषयक लाभकारी जानकारियां प्राप्त हुईं। डा. विवेक जी से जानकारी मिली कि यह पुस्तक किसी दिल्ली स्थित आर्येतर पुस्तक प्रकाशक द्वारा पुनः प्रकाशित करायी गई थी। उन्होंने बताया कि अमेरिका प्रवासी उनके पुत्र के पास इसकी कुछ प्रतियां हो सकती हैं। उन्होंने अपनी इमेल को भी शास्त्री जी के पुत्र को प्रेषित कर दिया। हमने अपने ‘वेदप्रकाश’ के अंकों के संग्रह में भी स्वामी जी की जीवनी को ढूंढा जिसके विषय में उल्लेख मिला था कि यह पत्रिका के अंकों में धारावाही रूप से प्रकाशित हुई थी। वेदप्रकाश मासिक पत्र और सम्प्रति ‘विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली’ के स्वामी यशस्वी श्री अजय आर्य जी से भी हमनें जानकारी ली। ज्ञात हुआ कि यह पुस्तक न तो उनके द्वारा प्रकाशित हुई और ही उनके पास विक्रयार्थ उपलब्ध है। इसके बाद हमने श्रद्धेय शास्त्री जी के पुत्र से इमेल पर पुस्तक की पीडीएफ प्रेषित करने का निवेदन किया। उन्होंने कृपा करके न केवल स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी की जीवनी की पीडीएफ ही हमें भेजी अपितु डाक से पंडित जी की दो पुस्तकें भी भेज दीं। इन में से एक आर्याभिविनय का पंडित जी द्वारा सम्पादित संस्करण है एवं दूसरी पुस्तक ‘क्या प्राचीन आर्य-लोग मांसाहारी थे’, है जिन्हें प्राप्त कर हमारी इच्छा की पूर्ति हुई।
आज के इस लेख के माध्यम से हम पंडित सत्यानन्द शास्त्री जी का उपलब्ध अति संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत कर रहे हैं जो कि हमें यत्र-तत्र उपलब्ध हो सका है। आर्य लेखक कोश ग्रन्थ में पं. सत्यानन्द जी के परिचय में बताया गया है कि सन् 1947 में देश विभाजन के पूर्व आप दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय, लाहौर में आचार्य थे। केन्द्रीय सचिवालय में कार्य करने के पश्चात् आपने अवकाश ग्रहण किया। आप स्वामी वेदानन्द तीर्थ के शिष्य हैं तथा विरजानन्द वैदिक संस्थान गाजियाबाद में मंत्री पर कार्य कर चुके हैं। आपके लेखन कार्य का परिचय देते हुए इस ग्रन्थ में बताया गया है कि ‘क्या आर्य लोग मांसाहारी थे?’ ग्रन्थ का लेखन वप्रकाशन संवत् 2025 विक्रमी (सन् 1968 ई.) में किया। इसके बाद आपने आर्याभिविनय का सम्पादित संस्करण सम्वत् 1926 विक्रमी अर्थात् सन् 1969 ईस्वी में सम्पादित किया। आर्याभिविनय का अंग्रेजी अनुवाद Devotion Texts of the Aryas सन् 1972 में प्रकाशित किया। आपने स्वामी वेदानन्द तीर्थ का एक खोजपूर्ण जीवनचरित लिखा है जो वेदप्रकाश दिल्ली में धारावाही छप रहा है।
पंडित जी द्वारा सम्पादित आर्याभिविनय पुस्तक के अन्तिम आवरण पृष्ठ पर पण्डित जी का परिचय प्रकाशित हुआ है। उसके अनुसार पण्डित जी का जन्म सन् 1916 में हुआ था, सन् 1934 में उन्होंने इण्टरमीडियट परीक्षा उत्तीर्ण की थी, इसके बाद संस्कृत पढ़ने के लिए उन्होंने स्कूली शिक्षा का त्याग कर दिया और स्वामी वेदानन्द तीर्थ से संस्कृत का अध्ययन किया, आपने हैदराबाद आर्य सत्याग्रह में भाग लिया था और सन् 1939 में प्रख्यात आर्यनेता, विद्वान और प्रसिद्ध पत्रकार महाशय कृष्ण के साथ गिरफ्तार होकर औरंगाबाद की जेल में रहे, सन् 1940 में जेल से रिहा होने के बाद आपने कालेज में प्रवेश लिया और सन् 1942 में बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की, सन् 1943 में आप शास्त्री बने और सन् 1944 में डी0ए0वी0 कालेज, लाहौर से एम0ए0 किया। आप देश की स्वतन्त्रता के आन्दोलन में भी सक्रिय रहे। आपने दयानन्द ब्राह्म महाविद्यालय, लाहौर को पुनः आरम्भ किया और सन् 1944 से 1946 के मध्य इसके प्राचार्य रहे। देश का विभाजन होने पर आपको भारत आकर दिल्ली रहना पड़ा। सन् 1949 में आपने संविधान सभा के सचिवालय में कार्यभार ग्रहण किया जहां आपने संविधान सभा को संविधान का हिन्दी अनुवाद करने में अपना सहयोग किया। इसके बाद आपने राज्य सभा सचिवालय में कार्य किया जहां से आप सन् 1974 में सेवा निवृत्त हुए।
स्वामी वेदानन्द तीर्थ जी की खोजपूर्ण जीवनी की पीडीएफ हमें इमेल से उनके पुत्र डा. अरुनाभ, एमडी से प्राप्त हो चुकी है। कल दिनांक 11 दिसम्बर, 2015 को हमें उनके पुत्र से डाक द्वारा पंडित जी की दो पुस्तकें ‘क्या प्राचीन आर्य-लोग मांसाहारी थे?‘ एवं ‘वर्तमान युग के प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती की दिव्य कृति आर्याभिविनय (जिसने लाखों व्यक्तियों की काया पलट दी) का नूतन संस्करण’ प्राप्त हुआ। आर्यों पर मांसाहार के विरोध में लिखी गई पुस्तक का जनवरी, 2005 में यह तीसरा संस्करण ‘शम्भूदयाल वैदिक संन्यास आश्रम, गाजियाबाद’ एवं ’गुरुकुल आश्रम, आमसेना, उड़ीसा’ से संयुक्त रूप से प्रकाशित हुआ है। इसका दूसरा संस्करण गार्च, 2002 में प्रकाशित हुंआ था। इस पुस्तक का प्रकाशकीय दयानन्द संन्यास आश्रम, गाजियाबाद के अध्यक्ष स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती, विरजानन्द वैदिक संस्थान द्वारा लिखा गया है जिसे महत्वपूर्ण जानकर हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। वह लिखते हैं कि ‘पिछले दिनों जब गोहत्यानिरोध आन्दोलन देश में जोरों से चल रहा था, उस समय कुछ एक दक्षिणात्य भाईयों ने समाचारपत्रों में ऐसे वक्तव्य दिये थे जिनका अभिप्राय था, ‘‘जब प्राचीन आर्य लोग गोमांस खाते थे तो उनके उत्तराधिकारी आजकल के हिन्दु क्यों गोहत्या विरोध के लिये आन्दोलन कर रहे हैं। उनके इस आन्दोलन से जहां भारत की जटिल खाद्य समस्या जटिलतर हो जायेगी वहां भारत के भिन्न-भिन्न समुदायों में वैमनस्य भी फैलेगा।” क्योंकि इन भाईयों द्वारा प्राचीन आर्यों के सम्बन्ध में व्यक्त किये गये विचार भ्रान्तिपूर्ण थे इस लिये उनका निराकरण किया जाना आवश्यक था। हमें पूर्ण विश्वास है कि पाठक, श्री सत्यानन्द शास्त्री, एम0ए0 द्वारा लिखे गये इस प्रबन्ध में, विपक्षियों की सब दलीलों का सप्रमाण और युक्तियुक्त उत्तर पायेंगे।’ पाठकों की जानकारी के लिये यह भी बता दें कि इस पुस्तक में निम्न लिखित अध्याय हैं 1-वेद-संहिताओं का साक्ष्य, 2-भ्रान्ति क्यों, 3-मांस-पलाओ नहीं, उड़द-पलाओ, 4-‘‘मधुपर्क” का सच्चा स्वरूप, 5-वैदिक यज्ञों में पशुबलि का निषेध, 6- ‘आलंभन’ का वास्तविक अर्थ तथा 7- उपसंहार। यह भी ध्यातव्य है कि पंडित जी ने अपनी यह पुस्तक तत्कालीन भारत की प्रधानमंत्री श्रीमति इंदिरा गांधी जी को सम्मत्यर्थ भेजी थी। उनसे 25 अगस्त, 1974 को प्राप्त हुए पत्र में उन्होंने लिखा था कि ‘Dear Shri Satyananda Shastri, Thank you for sending me your book “Devotional Tests of the Aryans”. The Vedas contain some of the most stirring prayers of mankind and have powerfully influenced the people of our country. I welcome your effort to bring out their significance. Yours sincerely, Sd/- Indira Gandhi, PM House, New Delhi.’ यह पत्र श्री शास्त्री को उनके पते राज्यसभा सेक्रेटेरिएट, पार्लियामेन्ट हाउस, नई दिल्ली के पते पर भेजा गया था। इसी पुस्तक में शास्त्री जी के लेखकीय कार्यों का विवरण प्रकाशित किया गया है, उसे भी प्रस्तुत कर रहे हैं:- Works of the Author: 1. Edited first edition of the bold typed, two colored Satyarth Prakash (Hindi) with the commentary of Swami Vedananda Tirth. All subsequent bold typed editions of the treatise available today are mere reprints of this book. 2- Devotional text of the Aryans – Annotated Aryabhivinaya (English) with exhaustive foot notes bringing into focus the validity of Swami Dayananda Saraswati’s method of vedic interpretations. 3- Aryabhivinaya (Hindi) Annotated version, 4- Vedic Sandhya – Text and procedure, edited and explained, What is AUM? and 6- Sanshayaalok. इसके बाद इमेल व डाक से पुस्तक प्राप्त करने के पते दिये गये हैं।
पंडित सत्यानन्द शास्त्री जी की अन्य प्रमुख कृति है, आर्याभिविनय का सम्पादित संस्करण। इस पुस्तक का प्रथम संस्करण सन् 1972 में प्रकाशित हुआ था। इसका दूसरा संस्करण सन् 2008 में उनके पुत्र डा. अरुनाभ तलवाड़ द्वारा रिसर्च एण्ड पब्लिशिगं हाउस, दिल्ली से प्रकाशित कराया गया है। इस पुस्तक में स्वामी विज्ञानानन्द सरस्वती द्वारा लिखित प्रस्तावना है और उसके बाद सम्पादक श्री सत्यानन्द शास्त्री द्वारा लिखित विस्तृत भूमिका एवं ‘कुछ ज्ञातव्य बातें’ शीर्षक से लिखी गई हैं। इन बातों को 5 खण्डों में दिया गया है। इसका पहला भाग हम पाठकों के अवलोकनार्थ प्रस्तुत कर रहे हैं। सम्पादकीय शीर्षक के अन्तर्गत वह कुछ ज्ञातव्य बातें के आरम्भ में वह लिखते हैं कि ‘मानव का स्वाभाविक ज्ञान बहुत ही सीमित है। वह अपने जीवन-व्यवहार की बहुत सी बातें अपने माता-पिता एवं सहकारियों से सीखता है। आदि काल के मानवों ने यह व्यवहार किससे सीखा होगा? महर्षि पतंजलि इसका उत्तर देते हैं-‘‘स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्” अर्थात् ‘काल द्वारा अनवच्छिन्न (अविशिष्ट=असम्बद्ध=अव्यवहृत) होने के कारण वह परम पिता परमात्मा पूर्व कालीन (सृष्टि के आदि में उत्पन्न हुए) ऋषियों का भी गुरु है। योगदर्शन के इस सूत्र का आशय यह है कि आदिकाल में जब मानव इस पृथिवी पर आविर्भूत हुए तो उनके पथ-प्रदर्शनार्थ जीवन-व्यवहार की सब बातें गुरुओं के गुरु परमगुरु परमात्मा ने उनके मन में गीर्ण कीं। इस प्रयोजन के लिए सृष्टि के आदि में अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों के अन्तःकरण में गीर्ण (आविर्भूत) हुए निश्चितशब्दार्थसम्बन्ध-निश्चितानुपूर्वी-ऋग्यजुसामाथर्वात्मक वांगमय का नाम वेद है। यहां इतना और कह देना आवश्यक है कि वेदों में ईश्वर के सम्पूर्ण गुणों का प्रकाश किया गया है। उन में परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव और सृष्टि नियम के विपरीत कुछ भी नहीं है। वेदों का आविर्भाव सृष्टि के आदि में हुआ अन्यथा आरम्भ से व्यवस्था कैसे चलती? अर्थान्तरेण सृष्टि के आरम्भ के पश्चात् बीच-बीच में ईश्वर की ओर से ईश्वरीय ज्ञान (वेद) का किश्तों में दिया जाना संभव नहीं। ऐसा होने पर ईश्वर में अपूर्णता का दोष सिद्ध होता है। परमेश्वर के एकरस होने के कारण उसका ज्ञान भी एकरस, अपरिवर्तनीय (घटती-बढ़ती से परे=पूर्ण) होना चाहिये। इसी हेतु से ही इस का बुद्धिपूर्वक (युक्तियुक्त) सार्वभौमिक और सार्वकालिक होना भी आवश्यक है।’
इस लेख में हमने आर्यजगत के विद्वान पं. सत्यानन्द शास्त्री के व्यक्तित्व व कृतित्व का यथोपलब्ध विवरण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। हम आशा करते हैं कि पाठक इससे लाभान्वित होंगे। हम आर्य प्रकाशकों से यह भी अनुरोध करेंगे कि वह पंडित जी की सभी पुस्तकों को प्रकाशित करने की कृपा करें। हमें शास्त्री के चित्र का अभाव खटक रहा है जो हम नहीं दे पा रहे हैं। भविष्य में अवसर मिलने पर चित्र सहित जीवन के कुछ अन्य पहलुओं को प्रस्तुत करने का भी प्रयास करेंगे।
-मनमोहन कुमार आर्य
सार्थक लेखन
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय बहिन जी।