लघुकथा

ख़ास दफ्तरों की आम कथा 1

मुल्ला नसरुद्दीन अपने दफ्तर में रात को पहरा दे रहे थे, अचानक दफ्तर प्रमुख के कक्ष से जोर जोर से खिलखिलाने की आवाजें आने लगी. मुल्ला तुरन्त ऊपर पहुंचे. कमरे में झांका तो अवाक रह गए. दीवारों के मुंह बने हुए थे और वे ही जोर जोर से हंस रही थी.

ध्यान से सुनना शुरू किया तो बातचीत से पता चला कि वे दफ्तर प्रमुख के बारे में बातें कर रही थी. दरअसल उन दीवारों ने पिछले अनेक दशकों में कई प्रमुखों को देखा सुना था. जिनमें विद्या और विनय तथा बड़े पद और बड़प्पन के अनूठे संगम को देखा था. वे दफ्तर को मन्दिर और सदस्यों को परिवार मानते थे. अमन चैन था, सबकुछ दुरुस्त था. और आज दीवारें हतप्रभ थी, मन्दिर मरघट जैसा था, सदस्यों के प्रति शत्रुता का भाव प्रबल था. शंका निर्भीकतापूर्वक दफ्तर में विचरण करती रहती थी. चुगली चरम पर थी, चापलूसी धूल की तरह कक्ष में व्याप्त थी. अपने ही अधीनस्थों के अपमान का मानचित्र रचा जाता था. दीवारें हंस इसलिए रही थी क्योंकि उन्होंने घमण्ड में चूर कुछ बलवान प्रमुखों को भी आते जाते देखा था और जाने के बाद उनकी लाचारी का भी निकट से दीदार किया था.

तभी नसरुद्दीन ने एक दीवार के भीतर से रोने की आवाज सुनी, यह वह दीवार थी, जिसपर पिछले प्रमुखों की बेजान तस्वीरें टंगी थी. वह दीवार कह रही थी कि जिन्होंने इस दफ्तर को संवारा, ये रुदन उनका है, मेरा नहीं है. वे तस्वीरें कह रही हैं कि हमारी बसाई प्रेम की दुनिया को यूं ही मत उजाड़ो. विद्या और अनुराग के इस घर में चुगली, चापलूसी, और षड्यंत्रों को पनाह मत दो. भला, अहंकार की रात में उनकी आवाज को कौन सुनता ? विद्या और विनय शत्रु हो चुके थे, बड़े पद और बड़प्पन का तलाक हो चुका था.

मुल्ला नसरुद्दीन उदास होकर चुपचाप अपनी जगह पर लौट आया, क्योंकि उसे मालूम था कि उसकी बात पर कोई भी यकीन नहीं करेगा और यह दफ्तर अपनी बेकसी पर रोता ही रहेगा. अब तो बस बर्बादी देखने की लाचारी बाकी रह गई थी.

— डॉ. मनोहर भण्डारी