कविता

दीपक से

मैंने दीपक से पूछा —
कब तक जलते जाओगे ?
बोला —
जलना अधिकार है मेरा
जलने दो |
देकर किसी को कुछ
अंतर में सुख पलने दो |
बुझाकर मुझे
क्या सुख पाओगे ?
अंधकार मिलेगा
बहुत पछताओगे |
मैंने कहा —
पछता तो अब रहे हैं
ओ नन्हे दीपक
जब से मिली स्वतंत्रता
निर्धनता में जी रहे हैं |
नन्ही तुम्हारी वर्तिका
किस-किस को बाँटेगी उजाला
किस-किस का करेगी
उजला,रंगा दिल काला ?
जगह-जगह देखो ,
स्वतंतता गल रही है
हर गली में ही
निर्धनता पल रही है |
झुग्गी –कुटियों के भी
टिमटिमाते तारे
मंद –हीन हो रहे उजियारे
हर शरीर है वस्त्रहीन
किसी को अट्टालिका,
किसी को नहीं ज़मीन
हर पेट है क्षुधाग्रस्त
हर क्षीण ही रोगग्रस्त |
दवा के नाम पर मिलावट
हर जगह झूठी सजावट
तलछट तो रह जाती है
जब-जब करो बगावत |
फिर भी बगावत की ज्वाला
कुछ तो भस्म कराती है ;
बस,आशा यहीं तो पलती है |
तुम्हारी आशा को मैं
निराश नहीं करूँगी
तुम्हारी वर्तिका में
स्याही नहीं भरूँगी |
दुआ यही है जलो
जलो,खूब जलो
नन्ही हो पर,
खूब शिखर पर चढ़ो
तुम्हारे प्रकाश में भी
धुँधली राह जगमगाएगी
आज अँधेरे में ही चल रही है
कभी तो देश को
उजाले की ओर ले जाएगी ;
जहाँ तन उजले होंगे
मन उजले होंगे
न पेट भूखे होंगे
न तन निर्वस्त्र होंगे |
अपने उजाले से बुनकर
उन्हें वस्त्र पहनाओ
अगवानी करके धरा पे
इतना अनाज उगाओ
कि हर कोई वस्त्र ओढ़ सके
हर पेट सुख की नींद सो सके
और कर्म के सुखद बीज बो सके |
और
यह जो धर्म के नाम पर लोग
सिकता–भँवर में फँसे हैं
साम्प्रदायिकता के नाम पर
आपस में ही गसे हैं
उनके चेहरों पर अपनी
बुझी बाती की कालिख मल दो
आतंकवादियों से सब भूल जाए
उन्हें कुछ ऐसा छल लो |
बस यही शुभकामना है कि
हर जगह खुशहाली हो
अंधकार बन जाए विदेशी
देश की हर गली उजियाली हो |
हम जैसे तो कविताएँ लिख-लिख
कितने जाते हार
तुम रहती हो अमर दिखाती राह
अमर असीम तुम्हारा प्यार
अमर असीम तुम्हारा प्यार |

रवि रश्मि ‘अनुभूति ‘ 

 

One thought on “दीपक से

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    भारत ने उन्ती तो की है लेकिन यह भी एक तस्वीर ही है जो आप ने बिआं की है .

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