संस्मरण

मेरी कहानी 96

1969 तक जितनी बसें थीं ,सब वुल्वरहैम्पटन कॉर्पोरेशन ही चलाती थी। इसी तरह बहुत से शहरों में लोकल काऊंसलज़ ही बसें चलाती थीं। 1 अक्तूबर 1969 से एक नई ऑर्गेनाइज़ेशन बना दी गई जिस का नाम रखा गिया west midlands passenger transport executive और मुख़्तसर तौर पर इस को कहते थे WMPTE . इस संस्था का दायरा बर्मिंघम वालसाल कॉवेंट्री और नज़दीक के सभी इलाकों तक हो गिया था । इन सभी गैरजों की बसें तकरीबन 2500 हो गईं। मैनेजर बटलर रिटायर हो गिया था । हर गैरेज में नए मैनेजर आ गए ,सारा सिस्टम धीरे धीरे बदलने लगा। मिनिस्टरी ऑफ ट्रांसपोर्ट की तरफ से नए नए क़ानून बन गए।

जब कि पहले काम करने की शिफ्टें बहुत बड़ी होती थीं और उन में कोई ब्रेक भी नहीं होती थी। जब कभी हम को दस पंदरा मिनट मिलते तो हम भाग कर कैंटीन में जाते और जल्दी जल्दी सैंडविच और चाय ले लेते थे और जल्दी जल्दी खा कर फिर काम शुरू कर देते थे। अब नया कानून बन गिया जिस से मैनेजमेंट को कमज़कम आधा घंटा ब्रेक जरूर देनी होती थी और यह ब्रेक अक्सर चालीस या पैंतालीस मिनट की भी हो जाती थी। पहले किसी ने ओवर टाइम करना हो तो जितने घंटे मर्ज़ी लगातार कर सकते थे लेकिन अब साढ़े पांच घंटे बाद मैनेजमेंट को आधे घंटे की ब्रेक देनी ही पड़ती थी और एक दिन में टोटल साढ़े दस घंटे ही काम कर सकते थे।

इन कानूनों से हमें बहुत सुख हो गिया था । ड्यूटीज इतनी अच्छी हो गईं कि हमें हर घंटे बाद बहुत सा स्पेअर टाइम मिल जाता था जिस में हम स्टीयरिंग वील की सीट पर बैठे बैठे कुछ ना कुछ पड़ते रहते। बहुत से ड्राइवर कंडक्टरों को लाएब्रेरी जाने की आदत पढ़ गई थी ,लाएब्रेरी जाते और तीन चार किताबें ले आते क्योंकि टाऊन की सेंट्रल लाएब्रेरी बिलकुल नज़दीक ही थी। हमारी यूँनिफार्म के कोट की जेबों बड़ी बड़ी होती थी। किताबें जेब में डाल लेते और स्पेअर टाइम में पड़ते रहते। शाम को खत्म करके क्लब्ब में चले जाते। उस वक्त हमारी दो क्लब्बें होती थीं ,पार्क लेंन की और क्लीवलैंड रोड की जो ऑक्सफोर्ड स्ट्रीट में होती थी । दोनों क्लब्बें शाम को बस स्टाफ से भरी होती थीं जिस में इंस्पैक्टर मैनेजर सभी होते थे ,इस में बहुत रौनक होती थी।

यह वोह समय था जब बीअर पी कर बस चलाने पर कोई पाबंदी नहीं होती थी। काम के दौरान भी जब कभी कुछ वक्त मिलता ड्राइवर कंन्डक्टर दोनों पब्ब में चले जाते और एक एक ग्लास बीअर पी कर फिर काम करने लगते। धीरे धीरे क़ानून बन गिया कि बियर पी कर बस चला नहीं सकते थे। इस लिए अब सिर्फ काम के बाद ही पी सकते थे लेकिन कई ड्राइवर फिर भी चोरी चोरी पब्ब में चले जाते और बहुत दफा पकडे भी जाते और उन को काम से छुटी भी हो जाती थी ,इसी वजह से बहुत ड्राइवर काम से हाथ भी धो बैठे थे। काम के बाद क्लब्ब में बहुत चहल पहल होती थी ,कोई स्नूकर खेलता ,कोई डार्ट खेलता ,कोई ताश और कोई डौमिनोज़। बियर के काउंटर पर तरह तरह की बीअर के पम्प लगे हुए होते थे और लड़किआं सर्व करती थीं।

यह समय था जिस वक्त धीरे धीरे काम करने के घंटे बहुत कम हो गए थे , लेकिन मज़े की बात यह थी कि हम सात घंटे काम करते तो तब भी हमें पेमेंट आठ घंटे की होती थी ,छै घंटे काम करते तो तब भी आठ घंटे की पेमेंट होती थी। रविवार के दिन तो कभी कभी ऐसा भी होता था कि हम चार पांच घंटे ही काम करते थे लेकिन पेमेंट आठ घंटे की ही होती थी। मैनेजमेंट को भी शायद इतनी परवाह नहीं थी क्यों कि मैनेजमेंट को हर साल कई मिलियन पाउंड की सब्सिडी मिल जाती थी। अगर मैं कहूँ यह समय हमारा गोल्डन एज ही था तो इस में कोई अत्कथिनी नहीं होगी।

अपनी कहानी आगे ले जाने से पहले मैं बस सर्विस की यह मुक्तसर हिस्टरी खत्म करना चाहूंगा। यह सिलसिला तब खत्म हुआ जब हकूमत ने अक्तूबर 1986 में बस सर्विस को deregulate कर दिया। इस के बाद कोई भी कंपनी बस चला सकती थी। बहुत सी कंपनीआं आ गईं और एक दूसरे से कम्पीटीशन शुरू हो गिया। जितने हम ने मज़े किये थे उतना ही काम बड़ गिया। डीरैगुलेशन से कुछ दिन पहले हमें हर बस मैंन को मैनेजिंग डायरेक्टर आइज़ैक की रिकार्ड की हुई कैसेट घर भेजी गई ,जिस में उस ने कहा था ,” अब समय बदल गिया है , हम ने दुसरी कम्पनिओं से कंपीट करना है ,ज़रा सोचो ,अगर यह तुम्हारा अपना बिज़नेस हो तो तुम किया करोगे , दुसरी कंपनी की बस अगर तुम्हारे पैसेंजर ले जाए तो तुम किया मेहसूस करोगे ,किया तुम घाटे में जाना पसंद करोगे ,चाहोगे कि तुम्हारा बिज़नेस बर्बाद हो जाए ?”.

यह कैसेट आधे घंटे की थी। यह टेप हम ने सुन तो ली थी लेकिन इस का पता हमें तब लगा जब बसों की नई शैड्यूल सामने आई। यहां हम को किसी रुट पर जाने के लिए आधा घंटा मिलता था ,अब सिर्फ बारह तेरह मिनट ही मिलते थे । हम बस को तेज चलाते ,एक सैकंड भी वेस्ट ना करते फिर भी हम लेट पहुँचते। टॉयलेट जाना होता तो भागते जाते और भागते आते। हर दम टेंशन रहती। अब किताबें पड़ना तो दूर की बात ही थी । यह भी बताना चाहूंगा कि आइज़ैक एक जीऊज़ था और सुना था कि उस ने इंडिया के कलकत्ता शहर की ट्रांसपोर्ट को भी ऑर्गेनाइज किया था।

सभी ड्राइवर बहुत दुखी हो गए थे क्योंकि हम भाग भाग कर तंग आ जाते ,पैसेंजर हमें गालिआं देते। इतने वर्षों तक ड्राइविंग करते करते हम एक्सपर्ट तो बहुत थे लेकिन फिर भी कभी कभी तेज़ चलाते हुए ब्रेक लगाते तो कई दफा लोग गिर जाते ,चोटें लगतीं और हमें मैनेजर के आगे पेश होना पड़ता ,हमें वार्निंग हो जाती। एक बात और हो गई थी कि सभी रुट इस तरह मिक्स कर दिए गए थे कि सारा दिन एक रुट से दूसरे रुट को ,फिर तीसरे रुट को ,सारा दिन ऐसे ही चलता था। पहले पहल तो ऐसा था कि ड्राइवर भूले भटकते फिरते ,रास्ता भूल जाते और लोगों से पूछते कि किस ओर जाना था। लोग मदद भी कर देते थे और ड्राइवर के साथ खड़े हो कर रास्ता बताते रहते।

1991 में आ कर यह सारी कम्पनी EMPLOYEE BUY OUT हो गई यानी यह कम्पनी सारे बस ड्राइवरों और अन्य काम करने वालों ने खरीद ली। अब यह कम्पनी हमारी अपनी हो गई जिसके डायरेक्टर इस को मैनेज करते थे। अब इस का नाम WEST MIDLANDS TRAVEL हो गिया। कुछ देर बाद ही इस कम्पनी को लंदन स्टॉक एक्चेंज में फ्लोट कर दिया गिया और इस के दो दो हज़ार शेयर सभी को दिए गए लेकिन उन की कीमत सिर्फ दो पाउंड ही बनती थी। हम सभी आपस में हँसते रहते कि हम अब कम्पनी के मालक बन गए थे जिस में हमारा हिस्सा दो पाउंड का था। लेकिन यह कोई नहीं जानता था कि इन शेयरों की कीमत इतनी बढ़ जायेगी कि सभी ड्राइवर अपना सख्त काम भूल जाएंगे। जल्दी ही इन शेयरों की कीमत बढ़ने लगी और हर साल नए फ्री शेयर भी मिलने लगे।

इन शेयरों के इतने पैसे हो गए कि कई ड्राइवरों ने नई गाड़ियां ले लीं लकिन जिन लोगों ने शेयर संभाल कर रखे उन्होंने बाद में अच्छे घर ले लिए। अब काम का बोझ सताता नहीं था , इसलिए सभी जी जान से काम करते थे और दुसरी बस कम्पनिओं के साथ कंपीट करते थे ,भाग भाग कर दुसरी कम्पनी बस के आगे जाते। उस समय इंग्लैण्ड में एक कोच कम्पनी होती थी ,जिस का नाम था नैशनल एक्सप्रेस लिमिटेड ,इस कम्पनी ने हमरी कम्पनी को खरीद लिया और कुछ देर बाद इस का नाम भी बदल कर ट्रैवल वैस्ट मिडलैंडज़ रख दिया। यह कम्पनी दूसरे देशों में भी बस कंपनीआं खरीदने लगी और स्पेन हॉलैंड नॉर्थ अमरीका में बहुत से रुट खरीद लिए और फिर रेल गाड़ियां भी चलाने लगे।

मुझे नाम याद नहीं लेकिन अब नैशनल एक्सप्रेस स्पेन की बस कम्पनी में मर्ज हो गई है और यह बहुत बड़ी कम्पनी है, यह तो है बसों का छोटा सा इतहास। साल 2000 में हम इंडिया गए थे और आते ही मेरी सिहत ने जवाब दे दिया। इस के छै महीने बाद ही मुझे मेडिकल ग्राउंड पर अरली रिटायरमेंट दे दी गई ,जिस से मुझे बहुत फायदा हुआ। कम्पनी की तरफ से हर हफ्ते इतनी पेंशन मिल जाती थी कि आराम से गुज़ारा हो जाता था। सारी ज़िंदगी काम में गुज़र गई थी ,अब लगने लगा कि हम वालाएत में रहते हैं।

अब मन में यह ही था कि रिटायरमेंट का लुतफ उठाया जाए ,बहुत से देश घूमे जाएँ लेकिन विधाता को कुछ और ही मंज़ूर था। कुछ देश देखे और मज़े किये लेकिन जब दो हफ्ते के लिए गोआ हॉलिडे गए , बहुत ही मज़े किये लेकिन दो तीन दिन वापस आने से पहले ही अंजना बीच पर समुन्दर की लहर ने खींच लिया , एक पल तो ऐसा लगा कि अब मेरा आख़री वक्त आ गिया था लेकिन एक लहर ने मुझे बीच पर जोर से पटक दिया ,काफी चोटें लगीं। बस इस दिन से मेरी ज़िंदगी का ग्राफ दिनबदिन नीचे की ओर जा रहा है। इस के बाद किया हुआ ,यह एक लम्बी कहानी है.

इस एपिसोड में मैंने मुक्तसर सी अपनी बस ज़िंदगी के बारे में लिखा है ,इस लिए कि मेरी बस ज़िंदगी को समझना आसान हो जाए। इस एपिसोड में और कुछ नहीं लिखूंगा। इस दौरान बहुत कुछ हुआ ,इतना कुछ कि लिखने के लिए हौसला और वक्त चाहिए। काम भी बहुत सख्त किया ,लेकिन मज़े भी बहुत किये ,स्ट्रैस भी बहुत लिए लेकिन कलरफुल लम्हें भी बहुत मिले। जी तो चाहता है कि अगर सिहत इजाजत दे तो वापस उसी काम पे चला जाऊं , पैसों के लिए नहीं बल्कि उस वातावरण के लिए जो साथिओं के साथ मिलता था।

अब तो सुना है ,काम पहले से भी एडवांस हो गिया है। बसों में सैट नैव लगा दिए गए हैं ,ड्राइवर को रास्ता पूछने की जरुरत ही नहीं है ,सैट नैव से लगातार आवाज़ आती रहती है ,आगे दायें मुङो बाएं मुङो ,और भी बहुत कुछ बदल गिया है। बसों पे 1965 से ले कर 2001 तक इतने उतार चढ़ाव देखे कि सोच कर हैरानी होती है। कैंटीन और क्लबों में इतने दोस्तों के साथ मज़े किये कि यह ज़िंदगी की एक सुनहरी याद बन गई है। आधे दोस्त तो यह संसार छोड़ गए हैं लेकिन उनकी यादें मन में एक मिठास भर देती हैं। मज़े की बात यह भी है कि इतनी भाग दौड़ करके भी मुझे हर साल सेफ ड्राइविंग अवार्ड मिलते रहते थे और मैडलों का तो एक छोटा सा डिब्बा भर गिया था और आखिर में जब काम छोड़ा तो मेरा ड्राइविंग लाइसेंस एक दम क्लीन था।

चलता. . . . . . . . .

3 thoughts on “मेरी कहानी 96

  • Man Mohan Kumar Arya

    Namaste avam dhanyawad. Mere destop par jayvijay site pichle 3 dino se khul nahi rahi hai. Is liye mobile phone par padhkar kuch shabd likh raha hun. Puri kist dhyan se padhi. Bahut achchi lagi. Goa ki dukhad durghatna ne apke jeevan ki Dasha aur disha dono badal de. Apki ichcha shakti prasanshniy hai. Apke madhyam se ek bhartiya mul ke bandhu ke England me driver ke jeewan ke bare me janne ka avasar mila. Apke jeevan ki aage ki ghatnaon ko jaanne ki ichcha hai. Dhanyawad, Sadar, Namaste.

    • मनमोहन भाई , धन्यवाद .बहुत दफा मेरे साथ भी ऐसा हो चुक्का है जब जयविजय की साईट खुलती नहीं थी ,फिर मैं विजय भाई को ईमेल करता था तो वोह वजह बता देते थे ,कुछ दिन बाद फिर सामान्य हो जाता था ,हो सकता है कुछ दिन बाद ठीक हो जाए . मेरा इंग्लैण्ड का अनभुव काफी कठिन रहा है लेकिन लेकिन अछे दिन भी बहुत मिले .अब जो मेरी हालत है ,मैं इस को जिंदगी का एक हिस्सा ही मानता हूँ और समझता हूँ कि मेरे से ज़िआदा दुःख उठाने वाले भी बहुत हैं . मैंने दो नजदीकी कैंसर पेशेंट्स को घुट घुट कर यह संसार छोड़ते हुए देखा है . इस लिए सोचता हूँ कि बहुत लोगो से मैं ज़िआदा सुखी हूँ किओंकि मेरी पत्नी और बच्चे मेरी बहुत देख भाल करते हैं और मैं मज़े से लैपटौप पर बैठा कुछ न कुछ देखता रहता हूँ और कभी कभी आप को भी अपसैट कर देता हूँ ,किया करूँ बहस की पुरानी आदत पडी हुई है लेकिन मुझे यह भी पता है कि आप इतने अपसेट होते नहीं किओंकि आप की रूचि धर्म में है .

    • मनमोहन भाई , धन्यवाद .बहुत दफा मेरे साथ भी ऐसा हो चुक्का है जब जयविजय की साईट खुलती नहीं थी ,फिर मैं विजय भाई को ईमेल करता था तो वोह वजह बता देते थे ,कुछ दिन बाद फिर सामान्य हो जाता था ,हो सकता है कुछ दिन बाद ठीक हो जाए . मेरा इंग्लैण्ड का अनभुव काफी कठिन रहा है लेकिन लेकिन अछे दिन भी बहुत मिले .अब जो मेरी हालत है ,मैं इस को जिंदगी का एक हिस्सा ही मानता हूँ और समझता हूँ कि मेरे से ज़िआदा दुःख उठाने वाले भी बहुत हैं . मैंने दो नजदीकी कैंसर पेशेंट्स को घुट घुट कर यह संसार छोड़ते हुए देखा है . इस लिए सोचता हूँ कि बहुत लोगो से मैं ज़िआदा सुखी हूँ किओंकि मेरी पत्नी और बच्चे मेरी बहुत देख भाल करते हैं और मैं मज़े से लैपटौप पर बैठा कुछ न कुछ देखता रहता हूँ और कभी कभी आप को भी अपसैट कर देता हूँ ,किया करूँ बहस की पुरानी आदत पडी हुई है लेकिन मुझे यह भी पता है कि आप इतने अपसेट होते नहीं किओंकि आप की रूचि धर्म में है .

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