कविता

दुनिया स्वार्थी

मुस्कानों को अपनी मैंने,रखा है बचाकर
ओढ़ लूँगी दुःख मैं ,रखती अधरों पर सजाकर
ओढ़ा दूँगी इसे ,किसी दुखी ज़रुरतमंद पर
क्या करूँगी इसे रख,अपने pas बचाकर |
कितनी तन्हाइयों में लोगों की बसर होती है
गरीबों की अभावों में ज़िन्दगी बसर होती है
कहाँ अट्टालिकाओं में बसे हैं चौक-चौबारे
विधनियों की, नालों के किनारे ही बसर होती है |
बड़ा दुःख होता है ,इन लाचार गरीबों को लखकर
सो जाते हैं क्षुधाग्रस्त ही,चटनी-रोटी चखकर
बिलखकर रह जाते है बच्चे,दो घूँट के लिए
तरस खाओ ओ अमीरो, कैसे सोते हो छककर |
इच्छा होती है, इन गरीबों को, मैं खूब खँगालूँ
अपने सभी अरमानों को, इनके लिए बेच डालूँ
मध्यम वर्ग की हूँ,करती हूँ कोशिश ऐ खुदा कि
कुछ हद तक मदद हेतु,इनकी झोली में कुछ डालूँ
देख इन्हें कसक उठती,पीड़ा बहाल होती है
नन्ही बच्ची मेरे हाथ से,जो थोड़ा दूध पीती है
रहता है स्वार्थ उच्च स्तर का,दुनिया स्वार्थी होती है
किसी का न दिल पिघलता है,न आँख रोती है |
मुझमें उनकी पीड़ा बसती,दिल खूब खौलता है
दिल में बसता दुःख, पारे- सा पिघलता है
काश ! सरकार कोई कानून बनाए,उन्हें धनी बनाने हेतु
पाषाण -हृदय है हर कोई, बस स्वार्थ को ही तोलता है |

रवि रश्मि ‘अनुभूति ‘

One thought on “दुनिया स्वार्थी

  • बिलखकर रह जाते है बच्चे,दो घूँट के लिए
    तरस खाओ ओ अमीरो, कैसे सोते हो छककर | कड़वा सच है .

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