कविता

तुम्हारी आंखें

जब भी पलकें बन्द करती हूँ
आंखों के भीतर
तुम्हारी आंखें दिखाई पड़ती हैं
तुम्हारी आंखें
सारी दुनिया भुला कर
सिर्फ मुझे देखती आंखें
तुम्हारी आंखों से छलकता
सारा प्यार
मेरे अन्दर तक समा जाता है
और
भाव अतिरेक में
जज़बात उमड़ने लगते हैं
दिल की धड़कनों पर काबू करती हूँ
तो लगता है जैसे
भीतर छिपे जज़बात
दिल के तहखाने से
निकलने को बेताब हो चुके हैं
भावनाओं के उठते ज्वार से
घबरा कर
झट से आंखें खोल देती हूँ
सामने फिर वही दुनिया
लेकिन
एक मीठा अहसास
मेरे लबों पर
एक मीठी मुस्कान छोड़ जाता है
लगता है जैसे
मेरे भीतर तुम्हारी आंखें
समा गई हैं
और हर पल
मुझे देख रही हैं
भीतर से बाहर तक !!

नमिता राकेश

3 thoughts on “तुम्हारी आंखें

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    वाह किया बात है , बहुत खूब .

  • मेरे भीतर तुम्हारी आंखें
    समा गई हैं
    और हर पल
    मुझे देख रही हैं
    भीतर से बाहर तक !!
    बहुत खूब आदरणीया!!!

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