संस्मरण

मेरी कहानी 105

कुलवंत की दिल्ली वाली बहन माया जो अब नहीं है के घर जा कर हम को कुछ चैन आया, स्नान करके ट्रेन के सफ़र का थकान कुछ कम हुआ. यहाँ तक मुझे याद है, कुलवंत की बहन माया के अभी दो बेटे ही थे, विटू और टोनी और हमारे बच्चों से कुछ साल बड़े थे। कुलवंत के जीजा जी अवतार सिंह बिलखु ने यह मकान किराए पर ही लिया हुआ था और अपना घर उन्होने बहुत देर बाद लिया था। चाय आ गई थी और पीते पीते बातें भी किये जा रहे थे लेकिन गर्मी बहुत थी। पंजाब में तो अभी इतनी गर्मी नहीं थी लेकिन दिल्ली में तो गर्मी बहुत थी। सुबह को हमने दिल्ली एअरपोर्ट पर जाना था. शाम को हम सभी तिलक नगर की दुकानों की तरफ चले गए. उस समय तिलक नगर में दुकानें इतनी नहीं होती थीं. फिर भी एक तो शाम की सैर हो गई और दुसरे हमने एक दूकान में बैठ कर कुछ नमकीन चीज़ें और चाय बगैरा का मज़ा लिया. कुछ देर बाद हम वापस आ गए. दोनों बहनें खाना बनाने में मसरूफ हो गईं. जब खाना तैयार हो गिया तो सब ने मज़े से खाया. देर रात तक हम बातें करते रहे. मच्छर देवते भी जैसे हमारी इंतज़ार में ही थे. हमारे इर्द गिर्द मंडरा रहे थे, हम कोशिश करते उन को दूर भगाने की लेकिन लगता था, वोह भी इंगलैंड के खून के ही प्यासे थे. कुलवंत की बहन ने हमें मच्छरों से बचने में बहुत सहाएता की, उस ने दो चारपाईओं के ऊपर मछर्दानी लगा दी। एक पर तीनों बच्चे सो गए और दुसरी पर हम दोनों।

मछरों को भी शायद गुस्सा आ गिया था, वोह मछर्दानी पर बैठे भीतर की ओर ऐसे झाँक रहे जैसे खिड़की से झाँक रहे हों थे, और मछर्दानी के छेदों में से गुसने की कोशिश कर रहे थे। बच्चे तो जल्दी सो गए थे लेकिन हम को नींद नहीं आ रही थी। कुछ मच्छर अंदर गुस आये थे और डंक मारने शुरू कर दिए थे। हमारी सब की चारपाईआं आँगन में थीं क्योंकि मकान अभी पूरा बना नहीं था। उस रात चाँद भी अपने पूरे यौवन पर था और मछरों की कलाबाजियाँ हमें दीख रही थीं। जब भी कोई मछर उड़ता मुझे दिखाई देता तो मैं भी अपने दो हाथ तैयार रखता और जब ही वोह मेरी रेंज में आते, मैं जोर से दोनों हाथों में उन को भींच लेता, करता भी क्या, नहीं तो दुश्मन हम पर अटैक कर देता। कुलवंत देख कर अजीब सा मुंह करके ऊँ ऊंह हूँ बोल देती। पता नहीं घंटा दो घंटे नींद आई होगी लेकिन जब सुबह उठे तो मछरों ने अपना बदला ले लिया था, जगह जगह हमारी शरीर पर दुश्मन की गोलिओं के निशाँ थे और बच्चों को तो देख कर ही तरस आता था क्योंकि उन को तो पता ही नहीं था कि रात को किया हुआ था लेकिन हम तो देख रहे थे कि उन के चेहरों पर लाल लाल धब्बे थे। यह रात हमें कभी भूलेगी नहीं।

जल्दी जल्दी नहा कर हम तैयार हो गए। खाना खाया और एक बड़ी सीटों वाली वैन पर सवार हो कर एअरपोर्ट की तरफ रवाना हो गए। एअरपोर्ट की बिल्डिंग में जाते ही कुलवंत की बहन बहनोई बिलखु को हाथ से हम ने बाई बाई कह दिया और वोह चले गए । एक काउंटर से दूसरे काउंटर पर हम जा रहे थे कि एक पुलिस मैंन मेरे पास आया और बोला, “आप ज़रा आइये, साहब बुलाते हैं “. हैरान हुआ मैं उस के पीछे चल पड़ा। जब वहां पुहँचा तो वहां पांच छै ऑफिसर बैठे थे और एक थानेदार मालूम हो रहा था जो एक सिख था । मुझे बैठने को कहा गिया। जब मैं बैठा तो एक बोला कि यह मेरा पासपोर्ट नहीं था, पासपोर्ट की फोटो मेरे चेहरे से मैच नहीं करती थी। मैं तो पज़ल्ड हो गिया कि यह किया हो गिया। बात सिर्फ इतनी थी कि मेरी फोटो क्लीन शेवन थी जब कि मैंने पगड़ी बाँधी हुई थी। अब मुझे समझ आ गिया कि माजरा किया था। भाग्य से मेरी फ़ाइल में वोह लैटर रखा हुआ था जो मुझे मेरे मैनेजर मिस्टर कैंडल ने मेरे इंडिया आते वक्त दिया हुआ था कि उसे अफ़सोस था कि मुझे मेरे पिता जी की मृत्यु के कारण मुझे काम छोड़ कर जाना पढ़ रहा था और वोह मेरे वापस आने पर मुझे काम पर रख लेंगे अगर वेकेंसी हुई तो। मैं वोह लैटर निकाल ही रहा था कि ऊपर से कुलवंत एक दम आ गई और आते ही गुस्से में उबल पड़ी और बोली, ” इन को पगड़ी उतार कर दिखा दो, ताकि ठीक से तसल्ली हो जाए “.

तब तक मैंने भी वोह लैटर निकाल लिया था और उस थानेदार की ओर बड़ा दिया। लैटर में दो तीन लाइनें ही थीं, और उस ऑफिसर जो एक सिख था ने कह दिया, ” कोई बात नहीं जी, आप घबराइये नहीं, यह एक फॉरमैलिटी थी, आप जा सकते हैं”. मैं वहां से उठा लेकिन मेरे मन में पता नहीं कितनी बातें एक दम घूम गई और जो लोग अक्सर इंडिया से आ कर पब्बों में सुनाया करते थे, आज मेरे साथ भी वही होने वाला था। आज तो एयरपोर्टों पर कोई ख़ास तकलीफ नहीं होती लेकिन जिस ज़माने की बात मैं कर रहा हूँ, उस वक्त एयरपोर्टों पर हमारे लोगों को बहुत परेशान किया जाता था ख़ास कर कस्टम में। कस्टम ऑफिसर अक्सर कस्टम ड्यूटी इतनी बोल देते कि लोग घबरा जाते और कुछ कम करने को कहते। वोह समय था, जब इंडिया में इलैक्ट्रीकल चीज़ें इतनी मिलती नहीं थी और लोग बाहर से ले कर आते थे। उन पर ड्यूटी तो होती ही थी लेकिन हमारे लोग भी पैसा देना नहीं चाहते थे और कुछ पाउंड कस्टम अधिकारी को दे कर निकल जाते थे, जिस के कारण जिन लोगों के पास सिर्फ कपड़े ही होते थे वोह दुखी होते थे। एक एअरपोर्ट पर तो हमने बहुत कुछ देखा था। एक दफा तो बहुत लोगों के सूट्केसों पर से चमड़े की बैलटें तक उतार ली गई थीं। कई अधिकारी तो सीधे ही कुछ मांग लेते, “यार कोई पैंन ही दे जा “, और लोग पैंन दे देते। लोग बहुत शकायतें किया करते थे। भला हो समाजवादी पार्टी के बलबीर सिंह रामूंवालीआ का, उस ने एअरपोर्ट पर सुधार लाने की बहुत कोशिश की और एक नंबर भी दिया था कि अगर कोई तकलीफ आये तो उस नंबर पर टेलीफून करें। बहुत बातें मेरे दिमाग में आईं।

दिल को कुछ सकूँन मिला और हम आगे इमिग्रेशंन की ओर बढ़ गए लेकिन मेरा मन अशांत हो गिया था कि अगर यह लोग कोई बाधा खड़ी कर देते तो किया होता। क्लीरैन्स के बाद हम सभी यात्रिओं के साथ एक बड़े कमरे में सीटों पर बैठ गए, कुलवंत बोले जा रही थी, ” कैसे लोग हैं यह, उनको पता है कि आप सही हैं लेकिन जान बूझकर पैसे बनाने के मकसद से पंगा डाल रहे हैं”। बातें तो मैं भी कर रहा था लेकिन मैं बहुत अपसेट था क्योंकि ऐसा बहुत लोगों के साथ अक्सर होता ही रहता था और लोग यहां आ कर अपनी कहानीआं सुनाया करते थे कि इन जमदूतों से पीछा छुड़ाने के लिए उन को कुछ पाउंड देने पड़े थे। एक और बात भी जो हमारे साथ अक्सर होती रहती थी कि एअर होस्टैस का बर्ताव भी हमारे साथ अच्छा नहीं होता था। अगर गोरे यात्री हों तो उन के साथ हंस हंस बातें करती रहती थी लेकिन हमारे लोगों को जाहल ही समझती थीं। रनवे पर खड़े एरोप्लेन की तरफ हम जाने लगे और जल्दी ही एरोप्लेन की सीटों पर विराजमान हो गए। जब तक प्लेन उड़ा नहीं मेरे मन में बुरे खियाल ही आ रहे थे कि कहीं मुझे एरोप्लेन से उतार ही ना लें । जैसे ही प्लेन बादलों के ऊपर गिया, लगा मैं अपने घर आ गिया हूँ। बच्चों के साथ अब मैं बातें करने लगा। कुछ देर बाद मैंने एअर होस्टैस से विस्की का एक डब्बल पैग लिया। कुछ देर बाद सारा स्ट्रैस दूर हो गिया और बच्चों से इंडिया की बातें पूछने लगा, ख़ास कर तांगे और रिक्शे की राइड के बारे में। दोनों बेटीआं इंडिया की बातें याद करके हंस रही थीं और हम भी उन की बातों का मज़ा ले रहे थे।

जब हम बर्मिंघम एअरपोर्ट पर लैंड हुए तो तीन चार वजे का वक्त होगा। जब बाहर आये तो धुप खिली हुई थी और कुलवंत का फुफड़ हमें लेने के लिए आया हुआ। उसे देखते ही सब बच्चे खुछ हो गए। कुलवंत के यह भुआ फुफड़ सगे नहीं हैं लेकिन इन से हमें जो पियार मुहब्बत मिला और अभी तक मिल रहा है, उसको किसी तराज़ू से तोला नहीं जा सकता। इनके बारे में मैं फिर कभी लिखूंगा, फिलहाल तो वोह अपनी गाड़ी एअरपोर्ट की बिल्डिंग के सामने ले आये यहां कुछ मिनट तक पार्किंग की इजाजत थी। गाड़ी कोई ज़्यादा बड़ी नहीं थी, इसलिए उन्होंने पहले ही गाड़ी के ऊपर रूफ रैक फिक्स किया हुआ था। कुछ सामान बूट में रख दिया और कुछ ऊपर और हम चल पड़े। जब हम A 45 सड़क पर बर्मिंघम सिटी की और जा रहे थे तो मेरे मुंह से निकल गिया, आ हा ! कितनी शान्ति है, कोई हार्न नहीं, कोई शोर नहीं। फुफड़ जोर जोर से हंस पड़ा और बोल पड़ा, “बई गुरमेल ! बिलकुल मुझे भी इंडिया से आकर ऐसा ही मालूम हुआ था, कितना रौला रप्पा, कितने खामखाह हॉर्न, बिना वजह ही हॉर्न और कई तो इतने तीखे कि कानों में दर्द होने लगता है “. फिर वोह ट्रक्कों के पीछे लिखे हुए जुमलों और शेयरों की बात करने लगे और हम हंसने लगे। अब हमें मालूम होने लगा कि हम अपने घर आ गए हैं। बर्मिंघम छोड़ चुक्के थे और जब वैडनसबरी के नज़दीक आये तो अँधेरा हो गिया था और चारों तरफ दीप माला हो गई मालूम होती थी। सड़कों के खम्भों पर ट्यूब लाइट से सड़क दूधिआ रंग की दिखाई दे रही थी और इतनी गाड़ियां होने के बावजूद कितनी शान्ति थी।

अपने घर के आगे आ कर मैंने दरवाज़ा खोला और सारा सामान अंदर ले आये। घर ऐसे लगा जैसे अभी अभी सफाई की गई हो। गियानी जी की बेटीआं बंसो और छिंदी ने हर एक चीज़ बड़े सलीके के साथ सजाई हुई थी। कुलवंत उनको बता आई और सभी हमारे घर में आ गए और बातें होने लगीं। जसवंत भी आ गिया था। कुछ देर बाद मैं जसवंत और फुफड़ तीनों पब्ब की और चल पड़े। पब्ब ही एक जगह होती थी जिसमें जा कर रिलैक्स हो कर बातें किया करते थे। आज तो वोह रिवाज़ लगभग बंद ही हो गया है और ज़्यादा पब्ब तो बंद ही हो गए हैं। आज के बच्चे पब्ब के इतने शौक़ीन नहीं हैं और अब यह कौस्ट्ली भी बहुत है। हम ऐश ट्री पब्ब में चले गए यहां ऐन्सल्ज़ बियर मिलती थी जो हमारे लोगों में ज़्यादा प्रचलित थी। उस वक्त इंग्लैंड में हज़ारों किसम की बियर मिलती थी, इतनी वैराइटी आज तक किसी भी देश में नहीं है। पुराने ऐश ट्री पब्ब की जगह अब नया पब्ब बन गिया था जो बहुत सुन्दर था। पब्ब का मालक भी अब एक पंजाबी ही था, इस लिए यह पंजाबीओं से भरा रहता था क्योंकि यहां अपनापन महसूस होता था। याद नहीं कितनी देर हम बैठे रहे और इंडिया की बातें रहे, जब हम बाहर आये तो मन हल्का हो गिया था। घर आये तो खाना तैयार था। खाना खा कर फुफड़ जी बर्मिंघम को चल पड़े। बंसो छिंदी भी चले गईं और हम भी सोने की तैयारी करने लगे।

कुछ देर हम ने टैली देखा, बच्चों की आँखें नींद से बंद हो रही थीं और कुछ देर बाद हम ऊपर बैड रूम में चले गए और सोने की तैयारी करने लगे। सुबह का प्लैन यह था कि पहले अपने डैपो की और जाऊं और काम के बारे में पता करूँ ताकि ज़िंदगी फिर से पटरी पर आ सके। हम सो गए और सुबह बहुत लेट उठे। कुलवंत ब्रैक फास्ट की तैयारी करने लगी और मैं नहाने लगा। नहा कर जब बाहर निकला तो ब्रेक फास्ट तैयार था। मज़े से बहुत देर बाद इंगलैंड का ब्रेक फास्ट खाया। ऊपर जा कर कपडे बदले और काम का पता करने के लिए मैं बस डैपो को चल पड़ा।

चलता. . . .

10 thoughts on “मेरी कहानी 105

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। आज की बातें पढ़कर संतोष हुआ। मछरों की परेसानी और एयरपोर्ट पर जो हुआ वह किसी को भी विचलित कर सकता है। लंदन के अपने घर आकर सुकून मिला यह स्वाभाविक ही था। इंग्लॅण्ड को इंग्लॅण्ड के लोगो ने अच्छा बनाया है। वह प्रशंसा के पात्र हैं। भारत को भारत के लोगो ने ख़राब किया है। इसके जिम्मेदार केवल हम और हमारे कुछ पूर्वज रहे हैं। यदि वह और आज के हम ठीक हो जाए तो हम भी यूरोप की तुलना में कुछ अच्छा स्थान पा सकते हैं। हार्दिक धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , अगर भारत अच्छा बन जाए तो यकीन मानों सभी बिदेशों में रहने वाले भारती वापस अपने देश आ जायेंगे .जो बिदेशी भारती बाहर रहते हैं ,सभी अमीर नहीं हैं लेकिन जो दफ्तरशाही भारत में है ,उस से दुखी हो कर वापस आ जाते हैं ,वर्ना पैसा भारती लोगों के पास ज़िआदा है .

      • विजय कुमार सिंघल

        सही कहा भाईसाहब !

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आपको तो व्हिस्की भी मिल गई और अपनों का प्यार भी, इंग्लैंड और घर की मौज अलग, हुण मौजां-ही-मौजां. अद्भुत एपीसोड.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      हा हा ,लीला बहन ,यह भी एक अभुल याद ही है ,हाँ एक बात और ,मुझे लगता है तिलक नगर के मच्छर अभी भी वहां होंगे किओंकि उन की उन्ती denghu की शकल में दीख रही है .

      • विजय कुमार सिंघल

        हा हा हा हा ! मच्छर सर्वव्यापी हैं !!

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      रमेश जी ,धन्यवाद .आप मेरी कहानी पढ़ रहे हो ,मेरे लिए गौरव की बात है .

  • विजय कुमार सिंघल

    भाई साहब, दिल्ली एअरपोर्ट पर आपको जिस अनुभव से गुजरना पड़ा वैसा अनुभव सभी को भारत में हर जगह होता है. देश में इतना भ्रष्टाचार न होता तो देश बहुत पहले विक्सित हो चुका होता.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      विजय भाई , अगर हम भारत से बाहर ना आते तो शाएद हमें इतना महसूस ना होता लेकिन यहाँ आ कर महसूस हो रहा है कि मानसिक तौर पर भारत अभी सौ साल पीछे है और दुःख की बात यह है कि हम ने भारत छोड़ा था तो शाएद इतना नहीं था ,अब तो जो यहाँ बैठे देख सुन रहे हैं ,उन से बेडा गरक हुआ लगता है . एअरपोरतों पर जो होता था ,उस की तो सिर्फ एक झलक ही लिखी है लेकिन इस से कहीं ज़िआदा होता था .

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