कविता

अघरा

नारी
तुम्हें अबला कहा जाता है
एक समय था जब नारी
अपने को
अबला स्वीकारने लगी थी
अब
शिक्षा के प्रसार के कारण
या कि
विज्ञान के विभिन्न विस्मयकारी
तथ्यों का पता लगने से
नारी अपने को अबला समझने से
कतराती रही है
लेकिन कब तक!

पुरुष
पल-पल उसे
अहसास करा देता है
कि तुम अब भी अबला हो
यही नहीं, अघरा भी हो.

नारी
जिस घर में
नन्हीं कलिका की भांति
अंकुरित, प्रस्फुटित व पल्लवित होती है
उसी को अपना मान लेती है
जैसे ही
उसके मोह-संवर्धन का
पता लगता है
उसे अहसास कराया जाता है
कि
यह घर उसका अपना नहीं है
वह तो पराया धन है
यहां धर्म नारी के आड़े आता है
बात बनाने को दिल बहलाने को
उसे विश्वास दिलाया जाता है
कि
पति का घर उसका अपना घर होगा.

पति का घर पहले तो उसे
अनजाना-सा लगता है
शनैः-शनैः उसे घर से
तथा घर को उससे
लगाव होता चला जाता है
लेकिन
यहां भी उसे गाहे-बगाहे
अहसास कराया जाता है
कि
यह घर उसका नहीं है.

वह कभी भी निष्कासित की जा सकती है
यहां राजनैतिक कानून
उसके सहायक हो सकते हैं
किंतु समर्पण की साक्षात् प्रतिमूर्ति
नारी
प्रायः पुरुष की दया को ही
आश्रय मान दयनीय हो जाती है।

कहीं वह
पुत्र के आश्रित हुई तो
वह घर भी
उसका अपना नहीं होता
पुत्र का होता है
घर का स्वामित्व
मां का हो
इस स्थिति को
न तो पुत्र ही स्वीकारता है
न ही समाज.

और
येन-केन-प्रकारेण
छल से
बल से
या
मोहाधिक्य के आवेश से
स्वामित्व पुत्र की झोली में
आ ही जाता है
और
नारी
पुत्र के घर से
सामंजस्य स्थापित करने का
प्रयत्न करती हुई
निःशेष हो जाती है
जी हां, नारी के स्वामित्व से
समाज को
अपच हो जाता है.

सम्भवतः
एक तरह से
नारी के लिए अघरा होना
एक वरदान भी है
क्योंकि
अंत समय में
उसे घर छोड़ने का
मर्मांतक दुख
नहीं झेलना पड़ता
क्योंकि
उसका तो कोई घर ही नहीं
वह अघरा थी
अघरा रही
और
अघरा ही चली जाती है.

अब भी समय है कि नारी चेते
अपनी अस्मिता को पहचाने
और
पुरुष को यह सोचने को विवश करे
कि
नारी और घर
एक दूसरे के पर्याय हैं
नारी से घर है
और घर से नारी
नारी के कारण ही
चारदीवारों के घेरे को
घर की संज्ञा दी जा सकती है
घर का इतिहास
नारी के द्वारा ही लिखा जाता है
एक तरह से घर के अस्तित्व का
आधार-स्तम्भ ही नारी है
नारी को अघरा कहना
घर के सम्मान को ही नकारना है.
और
समूचे समाज के विश्वास की चूलों को
निर्बल करना है.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

10 thoughts on “अघरा

  • मनमोहन कुमार आर्य

    एक विशेष परिप्रेक्ष्य में नारी की भावनाओं को अभिव्यक्ति देती यह कविता अच्छी लगी। सादर धन्यवाद।

    • लीला तिवानी

      प्रिय मनमोहन भाई जी, सार्थक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत विचारशील कविता, बहिन जी ! सोचने को बाध्य करती है।

    • लीला तिवानी

      प्रिय विजय भाई जी, आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया.

  • पूनम पाठक

    नारी के अस्तित्व को प्रदर्शित करती आपकी रचना ने दिल को छू लिया…

    • लीला तिवानी

      प्रिय सखी पूनम जी, नारी का वर्चस्व हमेशा से रहा है और हमेशा रहेगा. नारी समझ चुकी है, बाकी दुनिया भी जल्दी ही समझ जाएगी. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लीला बहन , पहले तो महला दिवस की हम दोनों की ओर से आप को वधाई हो , दुसरे जो आप ने कविता लिखी है ,इस में शुरू से ही जो महलाओं की स्थिति रही है और आज भी है ,बहुत अच्छी तरह वर्णन किया है . बेछक महलाओं के साथ वित्करा होता आया है लेकिन उस को ऊंचा दिखाने का काम भी कई पुरषों ने ही किया किओंकि अगर महला मर्दों के दिस्क्रिमीनेशन का शिकार होती आई है तो उन में मर्द की अपनी बेटी भी होती है और कोई बाप अपनी बेटी के साथ जुलम सहन नहीं कर सकता .

    • लीला तिवानी

      प्रिय गुरमैल भाई जी, चित्र के एक नवीन पहलू को प्रस्तुत किया है. सार्थक प्रतिक्रिया के लिए आभार.

  • नीतू सिंह

    महिला दिवस पर स्त्रियों को सुंदर समर्पण।

    • लीला तिवानी

      सार्थक प्रतिक्रिया करने के लिए आभार.

Comments are closed.