कविता

मालिनी सम छंद एवं कुंडलिया

मालिनी (सम छंद)
नगण नगण मगण यगण यगण – 15 वर्ण

रस रंग लय मोरा फ़ाग हारा जहाँ है
सुख दुःख कर मोरा प्राण प्यारा जहाँ है
चल सखि चल जाऊं वाहि तारा बनूँगी
अंसुवन भरि नैना नेह धारा जहाँ है।।

“कुंडलिया”

सखि आयो मोर बसंत, तनि गाओ रे फ़ाग
लगाओ उनहि तन रंग, दुलराओ रे राग
दुलराओ रे राग, मोर पिय जाए न दूर
लियो मोर अनुराग, चोरे नैनन कर नूर
कह गौतम कविराय, विरह की बातें लखि लखि
चित्त गयो अकुलाय, जिरह नहि गाऊँ रे सखि।।

महातम मिश्र (गौतम)

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ

2 thoughts on “मालिनी सम छंद एवं कुंडलिया

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह !

    • महातम मिश्र

      सादर धन्यवाद विजय सर जी

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