संस्मरण

मेरी कहानी 114

हमारे नए घर में सब से पहले बुआ फुफड़, उन के तीनों बच्चे जिन्दी निंदी और उन की बहन सुरिंदर आये और साथ ही आये निंदी के ताऊ और ताई। इस घर में आने पर पहले कुछ दिन तो बहुत अजीब सा मालूम होता था लेकिन जब यह सभी आये तो घर भर सा गिया। इस घर की किचन बहुत छोटी सी थी और औरतों से भर गई। खाने बनने लगे और बच्चे गार्डन में खेलने लगे। गर्मिओं के दिन थे और बाहर धूप थी। फुफड़ की एक आदत बहुत अच्छी थी, वोह बच्चों के साथ बच्चों जैसा हो जाते थे और उन से इस तरह खेल में मगन हो जाते थे जैसे वोह खुद भी बच्चे ही हों,बात बात पे उन के साथ हँसते थे, इसी लिए बच्चे तो उन के साथ जल्दी ही मिक्स हो जाते थे। निंदी के ताऊ ताई भी मज़े के लोग ही थे, वोह रिटायर हो चुक्के थे और अकेले ही कौवेंट्री शहर में रहते थे। उन के घर के फ्रंट रूम में वोह छोटी सी ग्रोसरी शॉप भी चलाते थे। शॉप से उन का रहने का खर्च पूरा हो जाता था। उन के दो लड़के थे जो कैनेडा में सैटल थे। निंदी की ताई तो कॉमेडियन जैसी थी, बात बात पे हंसती जिस से दूसरे को भी हंसी आ जाती। जब भी हम बुआ फुफड़ के साथ कौवेंट्री उन को मिलने जाते थे वोह हमें जल्दी आने ना देते। शॉप की पिछली ओर छोटा सा डाइनिंग रूम था। वहां हम सब बैठ जाते और ताऊ साहब शॉप से बीअर और विस्की ले आते और टेबल पर रख देते। ताई पकौड़े तलने लगती और साथ ही बात बात पे हंसती। टुन टुन जैसी ताई जब हंसती तो टुन टुन ही लगती। ताई की कुकिंग भी बहुत अच्छी थी और जब हम खाने बैठते तो वोह बदोबदी पलेटों में और डाल देती और कहती, ” इतनी तो बच्चे भी खा लेते हैं, और सच्च कहूँ जब तक जी भर कर मैं खा ना लूँ, मुझे तो नींद नहीं आती ” और खीं खीं करके हंंस पड़ती और साथ ही सभी की हंसी छूट जाती।

आज वोह हमारे घर आये हुए थे और ताई ने रौनक लगा दी थी। जब शाम हुई तो हम तीनों पब्ब को चले गए जो कोर्ट रोड के आखर में ही था, जिस का नाम था GOLDEN EAGLE (अब यह बहुत सालों से बंद है और इस की जगह कोई दफ्तर है). इस नए एरिए में पहली दफा हम इस पब्ब में आये थे जिसमें ज़्यादा गोरे गोरीआं ही थे और उन के बच्चे चिल्ड्रन रूम में स्नूकर खेल रहे थे। हम बार रूम में बैठ गए और मज़े से बीअर का मज़ा लेने लगे। इस नए एरिए में आने के कारण और इस में सभी गोरे होने के कारण, पहले पहल हम कुछ झिजक रहे थे लेकिन जब दो गोरे हमारे टेबल पे आकर हम से बातें करने लगे तो सब नॉर्मल हो गया। शनिवार की रात थी और जल्दी ही पब्ब लोगों से भर गिया और गोरे हाथों में ग्लास लिए खड़े थे। कुछ गोरे गोरीआं गाने लग पड़े थे और हम अपनी जुबां में बातें कर के हंस रहे थे कि यह भैरवी गा रहे थे। गिआरा वजे पब्ब बंद होते थे और हम दस वजे के करीब पब्ब से बाहर आ गए और दो तीन मिनट में घर आ गए। घर आये तो खाना तैयार था. सभी खाने लगे और ताई ने तो महफल गर्म कर दी थी. आज वोह दोनों नहीं हैं लेकिन जब भी उन की बातें करते हैं हंस पड़ते हैं, उन की जोड़ी महमूद और शोभा खोटे जैसी थी, दोनों ने बुढ़ापा मज़े से गुज़ारा और पहले ताऊ ने यह संसार छोड़ा और दो महीने बाद ही ताई यह संसार छोड़ कर ताऊ से जा मिली. निंदी का तो ताई से बहुत लगाव था.

रात के बारह एक बजे वोह चले गए और उन के जाने के बाद हम भी सो गए और अब लगने लगा कि इस घर में हम काफी देर से रह रहे थे. कुछ हफ्ते बाद बहादर और उस की अर्धांगिनी कमल बच्चों के साथ आ गए. हमारा रिश्ता तो बचपन से ही था और हमारे बच्चे भी मिल कर बहुत खुश होते थे. हम ने मिल कर खूब मज़े किये और हम ने किसी दिन ब्लैकपूल सी साइड जाने का प्रोग्राम बना लिया. कुछ हफ्ते बाद ही एक रविवार का दिन हम ने तय कर लिया. नियत दिन आपस में मशवरा करके हम ने खाने तैयार कर लिए. खाने में नंबर वन तो मीट ही होता था और उधर मीट बहादर ही बनाता था और इधर मैं. बेछक हमारी अर्धांगिनिआं बहुत अच्छा मीट बना लेती थीं लेकिन हम दोनों को खुद ही बनाने के बगैर तसल्ली नहीं आती थी। बाकी खाने छोले भठूरे समोसे और कुछ मीठी चीज़ें औरतों ने बना ली थीं। हर दफा ऐसा ही होता था कि खाने हम इतने बना लेते थे कि पांच छी और भी लोग खाने के लिए आ जाएँ तो खाना फिर भी बच्च सकता था, बस हमें तसल्ली नहीं होती थी। इस का कारण यह था कि हम खाने के बहुत शौक़ीन थे। मुझे याद है, उस समय बहादर के पास वाक्साल वीवा सिल्वर कलर की गाड़ी थी.

एक रविवार को सुबह सुबह गाड़ियां ले कर चल पड़े। बहादर को रास्ते का पता था और मैंने उस की गाड़ी को फॉलो करना था। मैंने नक्शा देखने की भी जरुरत नहीं समझी और बहादर की गाड़ी के पीछे लगा दी। बर्मिंघम सिटी सेंटर से बाहर आ कर हम किसी मोटर वे पर आ गए जो मुझे अब याद नहीं, इस के बाद हम ने मोटर वे M 1 लेनी थी और इस में से M 6 पकड़नी थी जो सीधे प्रेस्टन जाती थी और वहां से ब्लैकपूल के लिए साइन लेने थे लेकिन यह सब मुझे पता नहीं था और बहादर की गाड़ी का पीछा करता रहा। क्योंकि मोटर वे पर कारें बहुत फास्ट जाती हैं और हर कोई एक दूसरे को ओवर टेक करके आगे निकल जाने की कोशिश करता है, इस तरह बहुत बहुत सी गाड़ीआं मुझे ओवरटेक करके आगे निकल गईं और मुझ से बहादर की गाड़ी को देखना और फॉलो करना मुश्किल हो गिया। हम एक दूसरे की नज़रों से अलोप हो गए। अब मुझे समझ नहीं आती थी कि किया करूँ। पंद्रां बीस मिनट तक मुझे बहादर की गाड़ी कहीं दिखाई नहीं दी, जब दिखी तो उन की गाडी किसी और रोड को मुड़ गई और हम सीधे निकल गए । उस वक्त मोबाइल फोन तो होते नहीं थे। हम ने एक टेलीफून बूथ पर गाड़ी खड़ी की और बर्मिंघम बहादर के चाचा जी केसर सिंह को फोन किया कि अगर बहादर का फोन आये तो कह देना कि हम वापस बर्मिंघम उन के घर आ रहे हैं और वोह भी आ जाए। जब हम बहादर के घर आये तो पता चला कि बहादर का टेलीफून भी आया था और वोह भी वापस आ रहे हैं। कुछ देर बाद बहादर की गाड़ी भी आ खड़ी हुई और आते ही मुझ पर बरस पड़ा और बोला, ” यार तुझे ब्लैकपूल का भी पता नहीं था, तू गाड़ी चलाता जाता हम मिल ही जाते !”. अब मुझ को हीं हीं करने के सिवाए तो कोई चारा ही नहीं था। अब काफी वक्त बर्बाद हो गिया था, इस लिए हम ने वैस्टन -सुपर -मेयर जाने का प्रोग्राम बना लिया जो नॉर्थ वेल्ज़ में है , क्योंकि यह कुछ नज़दीक था.

अब मैंने नक्शा भी साथ में ले लिया और हम वैस्टन सुपर मेयर को चल पड़े। दो घंटे में ही हम वहां जा पहुंचे। जब हम वहां पहुंचे तो दिन बहुत अच्छा था, धुप खिली हुई थी। समुंदर का पानी बीच से दूर नहीं था। हम ने अपने मूवी कैमरे निकाले और नाच रहे बच्चों की मूवी बनाने लगे। धुप काफी थी लेकिन कुछ कुछ तेज़ हवा भी चल रही थी, इस लिए बच्चों ने अपने स्ट्रॉ हैट हाथ से पकड़ रखे थे और यह इस मूवी में भी दिखाई देता है। समुन्दर के साथ साथ तकरीबन बीस फ़ीट चौड़ी पेवमेंट थी और पेवमेंट के साथ साथ चौड़ी सड़क थी और उस पे ट्रैफिक काफी बिज़ी था। मीलों तक दुकाने ही दुकानें थीं और फन्न फेयर भी थे जिन में तरह तरह के झूले और गैंबलिंग की मशीनें लगी हुई थी और बहुत लोग इन मशीनों में सिक्के डाल कर किस्मत आज़माई कर रहे थे। कुछ देर बाद हम नीचे समुन्दर के किनारे आ गए और बच्चों के साथ सैंड कैसल बनाने लगे और फिर हमारी अर्धाँग्निआं और बच्चे अपने जूते उतार कर पानी में मस्ती करने लगे। यह सब हम ने अपने मूवी कैमरे में उतारा। इन मूवी कैमरों के बारे में भी कुछ लिख दूँ तो हमारे इस छोटे से इतहास का यह भी एक हिस्सा बन जाएगा।

आज कल तो डिजिटल कैमरे इतने बड़ीआ हैं कि मुझे कुछ लिखने की जरुरत नहीं है लेकिन उस समय 1977 78 के ज़माने में इन मूवी कैमरों में साउंड नहीं होती थी, सिर्फ साइलेंट मूवी ही बनती थी, अगर साउंड सिस्टम लेना हो तो साथ में एक और ऑडियो सिस्टम लेना पड़ता था जो एक्सपैंसिव होता था । इस कैमरे में सिर्फ चार मिनट की फोटो रील पड़ती थी। ज़्यादा तर ब्लैक ऐंड वाइट रील होती थी लेकिन कलर की रील लेनी हो तो काफी महँघी थी। जब हम मूवी बनाते थे तो इस रील को बहुत ही कंजूसी से इस्तेमाल करते थे क्योंकि यह जल्दी खत्म हो जाती थी.यह रील खत्म होने पर इस को प्रॉसेस करने के लिए कोडैक वालों की लैबारटरीज़ में भेजना पड़ता था । जब हमारे पास कुछ रीलें जमा हो जातीं तो हम एक छोटी सी गैजेट के साथ इन रीलों को जोड़ कर एक बड़े स्पूल पर लोड कर देते थे। मैंने तकरीबन ऐसी दस रीलें जोड़ कर एक बड़ी रील पर इकठी की हुई थी। फिर जब हमारा इस फिल्म को देखने का मन हो तो हम इस रील को प्रोजेक्टर पर फिक्स कर देते थे और सामने एक स्टैंड पर स्क्रीन खड़ी कर देते थे। खिड़कीों के परदे बंद करके अँधेरा कर देते थे और फिर प्रोजेक्टर चालु कर देते थे। जैसे जैसे फिल्म चलती, यह दुसरी खाली रील पर चढ़ती जाती जैसे सिनिमा घर के प्रोजेक्टर रूम में होता है। बेछक यह फिल्म साइलेंट ही होती थी लेकिन हमें इस को देख कर बहुत ख़ुशी होती थी। इस फिल्म को स्क्रीन पर देख देख कर बच्चे बहुत खुश होते। हमारा संदीप और बहादर का बेटा हरदीप बहुत छोटे छोटे थे, बेटीआं तो अब दस गिआरा साल की हो गई थीं।

इस के इलावा बहादर ने पहले एक कैमरा लिया जिस का नाम था yashika 24. जब बहादर ने मुझे दिखाया तो मुझे बहुत अच्छा लगा और मैं भी ऐसा ही कैमरा लेने के लिए बर्मिंघम शॉपिंग सेंटर में बहादर के साथ चल पड़ा। कैमरों की दूकान में हम चले गए और 65 पाउंड का यह कैमरा ले लिया। आज तो इस कैमरे को देख कर ही हंसी आ जायेगी क्योंकि पहले तो इस कैमरे से फोटो खींचने के लिए कैमरे को नीचे ज़मीं की ओर रखना पड़ता था और सीन को फोकस करना पड़ता था, दूसरे इस को दो लैंज़ लगे हुए थे जिन में एक तो औब्जैक्ट को फोकस करने के लिए होता था और दूसरा फोटो खींचने के लिए होता था, साइड पर लगे एक लीवर को आगे पीछे घुमा कर और पिक्चर का फोकस ठीक करके एक बटन को प्रैस करके फोटो खिंच ली जाती थी । इस कैमरे की रील में 12 फोटो आती थीं जो सुकेअर साइज़ की होती थीं। 24 एक्स्पोज़र वाली रील भी मिल जाती थी जो कुछ महँघी थी। इस कैमरे को मैंने बहुत साल तक रखा था और इस के साथ एक स्टैंड भी ले लिया था जिस से हम पार्कों में कैमरे को स्टैंड पर फिक्स करके और ऑटोमैटिक सैटिंग करके फोटो खींचते थे, जिस से हमारे सारे परिवार की फोटो आ जाती थी। इस तरह हमारे पास बहुत फोटो इकठी हो गई थीं जिस को देख देख कर खुश होते रहते।

बच्चों की जो मूवी वैस्टन सुपर मेयर के बीच पर हम ने बनाई वोह कोई बड़ी तो नहीं है लेकिन यह एक ऐसी याद इस फिल्म में कैद है जो पैंतीस छत्तीस साल पुरानी है और यह मूवी और फोटो बुढ़ापे में एक टॉनिक की तरह काम करती हैं। बीच पर मस्ती करने के बाद हम एक जगह बैंचों पर बैठ गए। भूख लगी हुई थी और खाने जो प्लास्टिक के डिब्बों में पैक्ड थे, निकाल कर खाने लगे। बाहर खुले में खाने का भी एक अपना ही मज़ा होता है। बीच पर घुमते घुमते बहुत थक गए थे और भूख भी चमक उठी थी, इस लिए जी भर कर सब ने खाना खाया। खाते खाते फिर कुछ मूवी ली। अब हम फिर सड़क के किनारे चलने लगे और दुकानों में शॉपिंग करने लगे। नज़दीक ही फन फेअर था जिस में से बहुत शोर सुनाई दे रहा था क्योंकि बच्चे जब कोई राइड लेते तो ऊंची ऊंची चीखें मारते थे। यह फनफेअर सेक्शन तो बहुत ही रौनक वाला था और बच्चों ने खूब मज़े किये।

जब हम इस फनफेअर से बाहर आये तो शाम होने वाली थी। हम ने गाडिओं का ऑयल, पानी और टायर बगैरा चैक किये और फैसला किया कि अब रास्ते में कहीं भी खड़े नहीं होगे और जब बर्मिंघम आएगा तो बहादर की कार बर्मिंघम की सड़क पर चले जायेगी और हम आगे चलते रहेंगे क्योंकि वुल्वरहैम्पटन आगे और बीस मील दूर था। हम ने हाथ मिलाया और चल पड़े। दो घंटे में ही हम बर्मिंघम के नज़दीक पहुँच गए और बहादर की कार बर्मिंघम की तरफ मुड़ी तो बच्चों ने एक दूसरे को हाथों से बाई बाई वेव किया और हम आगे बढ़ते गए। आधे घंटे में ही हम अपने घर पहुँच गए। यह दिन हमारे लिए एक अभुल यादगार बन कर रह गिया है।

चलता.. . . . . . . .

7 thoughts on “मेरी कहानी 114

  • मनमोहन कुमार आर्य

    नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी. क़िस्त को पूरा पढ़ा। ज्ञानवर्धन हुआ। आपकी स्मरण शक्ति एवं घटनाओं का प्रस्तुतीकरण काबिले तारीफ़ है। हमने पढ़ा है कि हमारा वर्तमान हमारे अतीत की देन है और हमारा भविष्य हमारे अतीत और वर्तमान के कर्मों का परिणाम होगा। बहुत बहुत धन्यवाद।

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      मनमोहन भाई , धन्यवाद .

  • लीला तिवानी

    प्रिय गुरमैल भाई जी, आपका छोटी-से-छोटी चीज़ को याद रखना, उनके दाम याद रखना और उनकी तकनीक को भलीभांति प्रस्तुत करना ऐसा लग रहा है, मानो कोई मंजा हुआ वैज्ञानिक अपने ऐक्सपैरीमेंट के बारे में से विस्तार बता रहा हो और वह भी रोचक भाषा में. कल हमारे बच्चे भी ईस्टर शो के फनफेयर में गए थे, बहुत खुश थे. अति सुंदर अद्भुत कड़ी के लिए आभार.

    • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

      लीला बहन , धन्यवाद .आप बच्चों के साथ फन फेअर पर गए ,बहुत अच्छा लगा . बच्चे खुश हों तो हम को ख़ुशी होती है . जब बच्चे फन फेअर में मज़े कर रहे हों तो उन की भाषा और उन के बचपन में चले जाएँ तो बच्चे तो पर्सन होते ही हैं ,लेकिन हम को उनको पर्सन देख कर ख़ुशी होती है . लीला बहन मैंने पहले इतना लिखा नहीं था ,अब लिखने बैठा हूँ तो अब छोटी से छोटी बात को मिस नहीं करना चाहता किओंकि आतम कथाएं बार बार तो लिखी नहीं जाती .हाँ एक बात जरुर है कि बहुत दफा मुझे बाद में याद आता है कि यह लिखना तो भूल ही गिया जैसे कुछ एपिसोड पहले जब हम तीनों भाई लोहड़ी के दिन खेतों में मज़े करने गए थे तो वहां एक शख्स था जो मिलिटरी में रह चुक्का था ,मुझे उस का नाम याद नहीं आ रहा था ,तो बहादर ने मुझे याद कराया कि उस का नाम पूरन सिंह था . बस कोशिश करता हूँ कि कोई बात रह ना जाए .

      • लीला तिवानी

        प्रिय गुरमैल भाई जी, इतनी चिंता मत किया कीजिए और अब याद आ ही गया है, तो एडिट करके अब लिख दीजिए. कोई प्रसंग याद आ जाए, तो उस पर एक अलग एपीसोड बना दीजिए. कोई परेशानी आ जाए, तो पाठकों से शेयर कर लीजिए, बहुत तरीके सुझा देंगे, सभी हम सबके मित्र हैं.

        • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

          लीला बहन ,आप का सुझाव अच्छा लगा और समझ आ गिया ,धन्यवाद जी .

          • लीला तिवानी

            प्रिय गुरमैल भाई जी, आप मेरी कहानी में बीच में कुलवंत जी के गमले वाला और अपना बीन वाला कामेंट भी लिख दीजिए. जैसे मैं लिखती हूं, कि आज हम आपको अपने बचपन की ओर ले चलते हैं. या फिर आगे की कथा कहने से पहले मुझे एक किस्सा याद आ गया, पहले उसे सुन लेते हैं.

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