गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

तुम्हारे दर्द पे मेरा कलाम हो जाये ।
अब तेरे साथ भी किस्सा तमाम हो जाए ।।

इश्क मजबूर न करदे किसी तबाही को ।
तुम्हारे हुस्न को मेरा सलाम हो जाए ।।

जाम छलका है तेरी हर अदा से ऐ साकी ।
खुदा करे न के पीना हराम हो जाए ।।

बड़ी खामोश निगाहों से कत्ल करती हो ।
कत्लखाने में सनम एक शाम हो जाए ।।

बहुत आज़ाद मसीहा है वो आशिक तेरा ।
इक नज़र भर से वो तेरा गुलाम हो जाए ।।

खुदकशी कर न ले ऐ शम्मा परवाना तेरा ।
तेरी दहलीज पे कुछ इंतजाम हो जाये ।।

बेमुरव्वत की शक्ल में हैं चाहतें तेरी ।
ख्वाब तेरा न कहीं बेलगाम हो जाए ।।

इस रियासत को मुकद्दर से बचा रक्खा हूँ ।
तू बड़े नाज़ से मेरा निज़ाम हो जाए ।।

नवीन मणि त्रिपाठी

*नवीन मणि त्रिपाठी

नवीन मणि त्रिपाठी जी वन / 28 अर्मापुर इस्टेट कानपुर पिन 208009 दूरभाष 9839626686 8858111788 फेस बुक naveentripathi35@gmail.com

One thought on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी ग़ज़ल !

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