लघुकथा

लघुकथा : आत्मदर्शन

कुछ घंटे की खुशी।पुरुष की समानता, धार्मिक स्थल पर प्रवेश के केस जीतने की। भरभरा कर ढह गयी।
सामने एक अदृश्य खत लहरा रहा था, एक दामिनी का।
“दी! मेरे कातिल के छूटने, सिलाई मशीन पाने का विरोध न कर पायीं? रोज बलात्कार का दंश सहती बच्चियों का दर्द न दिखा आपको? तेजाब से जीवन नर्क बनाते लड़को के खिलाफ कुछ नहीं कहना था आपको?
धार्मिक अंधविश्वास ही तो बढ़ा। पुरूष ही नहीं स्त्री भी शनि को तेल चढ़ाएगी।कई घरों में पहले से चुल्हा नहीं जलता था, कुछ चूल्हे स्त्रियाँ भी बंद कराएंगी।
स्त्री -पुरूष दोनों ही मात्र आत्मा। ये बात कैसे, कब समझ आएगी? डर है कहीं इस समानता के पागलपन में स्त्री भी न बालकों से बलात्कार कर बैठे। ”
उफ्फ़! क्या करना था, क्या कर बैठी? लिंग भेद के व्यूह में आत्मा ही बिसर गयी थी। शपथ… आज से आत्माओं को जगाने का काम करूंगी।
जब जागे तब सबेरा।।

#निवेदिता

One thought on “लघुकथा : आत्मदर्शन

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    सबकी आत्मा जग जाये तो समाज सुधर जाये

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