धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

परमात्मा और हम !

परमात्मा हमारे अपने हैं। वस्तुत: वे हमारे हैं और हम भी उनके हैं !
हम उनसे पत्नी/पति/मित्र से भी ज्यादा प्यार कर सकते हैं और लड़ भी सकते हैं ! पत्नी/पति/मित्र शायद सुनें भी नहीं पर वे सुन भी लेते है वल्कि ख़ूब मज़े से सुन लेते हैं और चाहते हैं कि हम सुनाते रहें – चुप न रहें तो अच्छा- शिकवे शिकायत कर अपना व सृष्टि का सुधार करते रहें!
हम बेझिझक उनसे माँग सकते हैं या न मिलने की शिकायत कर सकते हैं – क्यों कि वे हमारे नितान्त निरे अपने है !
पर जब हम पूरे ‘वही’ हो जाएँगे तो स्वयं से स्वयं की सृष्टि की शिकायत नहीं कर पाएँगे ! यह सृष्टि हमारा उनका मिलित आयोजन प्रायोजन है अत: जैसी है – अच्छी बुरी अध-पकी  हम सबकी ही खेती है । यह अनन्त परियोजना प्रायोजना सदैव चलती रहेगी !
एक एक सूक्ष्म अणु जीवत को, निहारिका को, अन्ध-कूप, आदि आदि को अपनी अनादि अनन्त योजना का अँश या अँशी बनाना कहाँ इतना आसान है, बहुत प्रकाश- वर्ष चाहिए यह सब करने के लिए !
हमारा हर अँशी या सृष्टि वंशी अज्ञान में हमें बुद्धू समझता है – शिकवे शिकायत करता है पर न अपने को सुधारता संभालता है न अपनी सृष्टि को ! पर वे इस बात से अप्रसन्न नहीं होते क्यों कि वे हमारी सीमाओं से वाक़िफ़ हैं । फिर भी देर सवेर सृष्टि संचालक सबको अपनी सृष्टि का निदेशक प्रबंधक बनाने को तत्पर है क्यों कि इसके बिना किसी का चिर- स्थायी कल्याण सम्भव नहीं !
अत: आप उनसे मन हृदय व आत्मा मिला कर, अन्दर से जो हृदय कहे वह करते चलो – यही उनकी भी इच्छा है !
लेखक: गोपाल बघेल ‘मधु’
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा