कविता

खामोश किरदार

किताबों की खामोश चीख सुनी है कभी
उसमें बसे किरदारों की आवाज सुनी है कभी
हर किरदार तड़पता है —बंद पेज में दम घुटता है
गुनगुनाते शब्दों की आवाज फीकी पड़ जाती है
बिन चाहत के कैद जिस्मो – जान बन जाते हैं
सबने …..
कल्पनाओं के मुखोटे उढा , कोरे पन्नों पर उकेर दिया !
निर्जीव को सजीव बना दिया
पढ़ने वाले के एहसासों को जगा दिया —
सुनो
हर किरदार जीना चाहता है – वो भी किसी का साथ चाहता है !

डॉली अग्रवाल 

डॉली अग्रवाल

पता - गुड़गांव ईमेल - dollyaggarwal76@gmail. com

One thought on “खामोश किरदार

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

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