कविता

धूप

धूप अब बहुत देर तक नहीं रूकती है
आँगन की मुंडेर पर ठिठक कर मुड़ जाती है
जैसे कुछ तलाशती हुई आई हो दूर से मगर
आँगन !! सूने आँगन में आखिर कब तक!
कब तक पथरीली दीवारों से चिपक कर
धूप खड़ी रहे सूने आँगन को निहारती हुई
कब तक ………………………….

अब आंगनों में किलकारियाँ नहीं गूंजती
न ही हँसी ठिठोली और बातों के वो लंबे दौर !
न ही गीतों की लुभावनी आवाज ढोलक की थाप!
न वो अल्हड गोरियों का ठुमक कर नाचना
कि धूप चाह कर भी वो आँगन छोड़ नहीँ पाती थी
घिसटते घिसटते मुंडेर तक जाकर दीवार से चिपकी रहती थी!!!
मगर कब तक ……………

धूप का मन ही नहीं होता था वो आँगन की रौनक छोड़ने का !
मगर अब !! अब धूप रूकती नहीं है
चली जाती है सिर्फ मुंडेर से झांक कर ही
क्योंकि अब सूने आँगन में धूप का मन उदास होता है !
लंबे पसरे सन्नाटों को अब कोई नहीं तोड़ता !
न सर्दी में ! न गर्मी में ! न वसंत में, न पतझड़ में !
गहरे सन्नाटे …………………………..

ये गहरे सन्नाटे किसी कुएँ जैसे प्रतीत होते हैं
जिसमे कोई रौशनी नहीं होती ! मगर
जीवन होता है चहल पहल नहीं होती !
और हर छोटी सी आवाज को वो सन्नाटा बढ़ा देता है
और आवाज़ उन्ही दीवारों से टकराती हुई गूंजती रहती है
फिर थोड़ी देर बाद वही सन्नाटा ! अँधेरा ! और सूनापन !!
धूप कुएँ तक नहीं जाती .. …………………….